क्या मनुष्य को सुखी जीवन जीने के लिए ’जरूरत’ और ’इच्छा’ में फर्क जानना आवश्यक है — मीनाक्षी सुकुमारन

आज जब सब कुछ इतना अनिमियत,अवस्थित,उलझा हुआ हो गया है ऐसे में ज़रूरत और इच्छा में फर्क कर पाना भी मुश्किल हो गया है। ज्यादातर चीज़ों में ये तय कर पाना असंभव व नामुमकिन सा हो जाता है जिस वस्तु की चाह हम कर रहे हैं वो इच्छा है या ज़रूरत। पर सुखी जीवन के लिए इस बारीक सी रेखा को खींचना ज़रूरी है और जानना, मानना , तय करना क्या ज़रूरत है क्या इच्छा? वरना व्यक्ति भटकता ही रहता है और उसकी पूर्ति के लिए कुछ भी करेगा। फिर चाहे गलत काम हो, किसी से उधार या लोन। इस तरह कर्ज , लोन के मानसिक दबाव और एहसानों के बोझ के तले दबता चला जाता है सिर्फ स्टेटस मेंटेन करने को, लोगों को उप टू डेट दिखाने को अपनी इच्छा और ज़रूरत का फांसला मिटा नहीं पाता। हम एक झूठी , दिखावे की ज़िन्दगी बस जिये चलें जा रहे हैं जिसमें अपनी खुशी, अपनी जरूरत, अपनी चाह, अपनी इच्छा से ज़्यादा हम दूसरों का सोचते हैं, लोग क्या कहेंगे, क्या सोचेंगे वगेरा वगेरा। हम जब किसी मुसीबत, दुविधा, विपदा, पीड़ा या दुख में होते हैं तो लोग नहीं आते उसे सहने हमें खुद सहना, उभरना पड़ता है। तो फिर खुशियों, चाहतों , इच्छाओं और ज़रूरतों पर भी हमारा नियंत्रण होना चाहिए खुद के लिए तब क्यों हम लोगों का सोचते हैं, उनकी परवाह करते हैं। जिस दिन हम ये समझ लेंगे , स्वीकार कर लेंगे ज़रूरत और इच्छा का भेद पा लेंगे तब अपना जीवन बेहतर और सुखी बना लेंगे।
मीनाक्षी सुकुमारन
नोएडा