महाशिवरात्रि : दो धाराओं का मिलन -राजेश कुमार ‘राज’

भारत देश और विश्व में जहाँ कहीं भी भारतीय निवास करते हैं वहां प्रत्येक वर्ष फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष चतुर्दशी के दिन महाशिवरात्रि का पर्व बड़ी आस्था, उत्साह और उल्लास के साथ मनाया जाता है.
महाशिवरात्रि को मनाये जाने के पीछे के हेतु को समझने का प्रयत्न करें तो बहुधा एक ही कारण मुख्य रूप से सामने आता है. हमारी पौराणिक कथाओं के अनुसार इस दिन शिव और पार्वती का विवाह संपन्न हुआ था. किन्तु शिवरात्रि मानाने के पीछे एक और महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि इसी दिन भगवान शिव संसार में शिवलिंगी रूप में प्रकट हुए थे. ईशान संहिता के अनुसार फाल्गुन मास कृष्ण पक्ष चतुर्दशी के शुभ दिवस पर करोड़ों सूर्यों के सामान तेजवान शिवलिंग के रूप में भगवान शिव इस धरा पर प्रकट हुए.
महाशिवरात्रि से पूर्व की कथा अनुसार माँ सती के देहावसान पश्चात भगवान् शिव घोर साधना में लीन हो गए. उधर माँ सती ने पर्वतराज हिमालय के घर एक तेजवती कन्या के रूप में जन्म लिया. पार्वती के पिता पर्वतराज हिमालय को हिमाचल और हिमवान नामों से भी सम्बोधित जाता है. अतः पाठकगण भ्रमित न हों. अपने पूर्व जन्म के भगवान शिव को प्राप्त करने के प्रयोजन को सफल बनाने हेतु माँ पार्वती ने भी तपस्या आरम्भ कर दी थी.
उस काल में राक्षस तारकासुर का अत्यधिक आतंक था. तारकासुर की मृत्यु शिव पुत्र के हाथों होनी निश्चित थी किन्तु भगवान् शिव के घोर तपस्या में लीन होने के कारण देवगण ने अत्यधिक भयातुर होकर कामदेव को शिव की साधना को भंग करने के लिए भेज दिया. कामदेव भगवान शिव की साधना भंग करने में तो सफल रहा परन्तु भगवान् शिव के क्रोध की ज्वाला में भस्म हो गया. अब महादेव समाधि से जाग चुके थे. सुअवसर पाकर देवताओं ने उन्हें अपने आने के हेतु से अवगत कराया. देवताओं के अत्यधिक आग्रह के कारण पार्वती से विवाह के लिए महादेव तैयार हो गए.
फाल्गुन मास के कृष्णा पक्ष की चतुर्दशी के रोज महादेव की बरात पर्वतराज हिमालय के दरवाजे पर पहुँच जाती है. कन्यापक्ष की ओर से कन्या के कुल-गोत्र का वर्णन बड़े स्वाभिमान के साथ किया जाता है. पर्वतराज हिमालय भी वर यानि महादेव के कुल-गोत्र और माता-पिता की जानकारी चाहते हैं. हिमालय की बात को अनसुना कर शिव शून्य में निहारने लगे. बात बिगड़ती देख नारद मुनि ने महादेव का परिचय स्वयंभू के रूप में कराया और विवाह संपन्न हुआ. तदुपरांत शिव-पार्वती के संयोग से उनके ज्येष्ठ पुत्र भगवान कार्तिकेय का जन्म हुआ और उन्होंने तारकासुर का अंत कर सभी सुर-नरों को भय मुक्त किया.
यहाँ मैं शिव जी की बारात की रूपरेखा के बारे में बात करना चाहूँगा जहाँ से मैं महाशिवरात्रि के अपने निहितार्थ तक पहुँचने का प्रयत्न करूँगा. शिव भूतनाथ हैं, पशुपतिनाथ हैं और अघोरी हैं. अतः उनकी बारात में भूत-प्रेत, सभी प्रकार के पशु-पक्षी, उनके गण और कैलाशवासी साधू-सन्यासी सम्मिलित हुए.
कहाँ माँ पार्वती एक कुलीन क्षत्रिय कन्या और कहाँ शिव जैसा कुल-गोत्र-विहीन अघोरी तपस्वी. इन दोनों का मिलन सर्वथा असंभव था लेकिन माँ पार्वती की तपस्या और तारकासुर के अंत की अनिवार्यता ने यह संभव कर दिखाया.
शिव-पार्वती का मिलन दो परस्पर विरोधी जीवन धाराओं और दो परम्पराओं का मिलन हैं. यहाँ महादेव वनवासी तथा गिरिवासी जीवन परम्परा और अरण्य संस्कृति के नायक हैं तो माँ पार्वती एक उच्च कुलीन राजघराना परम्परा और नगरीय संस्कृति की परिचायक हैं. दोनों का मिलन राजा और रंक, नगर और वन, पर्वत और घाटी, महल और श्मशान, नियम और उदारता तथा अनुरक्ति और विरक्ति का मिलन है. महादेव और माँ पार्वती ने प्राचीन काल में ही सभी प्राणियों के मध्य समानता का एक उल्लेखनीय उदाहरण प्रस्तुत कर दिया था. किन्तु दुःख की बात यह है कि हम आज भी धर्म, वर्ण, संप्रदाय, जाति, क्षेत्र, भाषा, आर्थिक स्थिति इत्यादि के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में भेद कर रहे हैं. काश हम महादेव-पार्वती के सन्देश को अपने जीवन में चरितार्थ कर पाते तो महाशिवरात्रि के इस उत्सव को मनाना हमारे लिए सार्थक होता.
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