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विदेशी त्योहार और हमारी संस्कृति। // राजेश कुमार ‘राज”

 

1990 के दशक में जब से हमने उदारवादी अर्थव्यवस्था के लिये अपने फाटक खोले तब से उदारवाद, पूंजीवाद और बाज़ारवाद की रेल हमारी घरेलू अर्थव्यवस्था और हमारी सभ्यता-संस्कृति को रोंदती हुई तीव्र गति से आगे बढ़ती जा रही है।

यह संसार अब एक वैश्विक गाॅंव में तब्दील हो चुका है। व्यावसायिक कारणों से विदेशी कंपनियों, विशेषतः पश्चिमी देशों की कंपनियां, और उनके पदाधिकारियों के साथ हमारे व्यवसायियों के रिश्ते मजबूत हुए हैं और एक दूसरे के देशों में आना-जाना भी हो रहा है। आज मध्यम वर्ग, उच्च मध्यम वर्ग और उच्च आर्थिक वर्ग के छात्र-छात्राएं विदेश जा कर उच्च शिक्षा ले रहे हैं। बड़ी संख्या में हमारे टैकनोक्रेट्स भी विदेशों में नौकरी करने जा रहे हैं। इस तरह से हम लोग विदेशियों के त्योहार और उनकी परम्पराओं से रूबरू और प्रभावित हो रहे हैं। हम जोश-खरोश के साथ विदेशी त्योहार मनाना शुरू कर चुके हैं। भारतीय बाजार ने भी इन नये प्रयोगों को अपने आर्थिक लाभ के लिए हाथों-हाथ लिया। उदाहरण के लिये, 1980-1990 के दशक में वैलेंटाइन डे मनाने की कुछ ही मिसालें सामने आती थीं। लेकिन 1991 के उदारवादी दौर में इस त्योहार को मानाने की जो होड़ शुरू हुई, वो अब रुकने का नाम ही नहीं ले रही है। बाजार ने भी इस का दोनों हाथों से स्वागत किया और चांदी काटनी शुरू कर दी। प्रचारतंत्र के दम पर लोगों में यह बोध पैदा किया गया कि अपने प्रेमी/प्रेमिका या पति/पत्नी के प्रति इस दिन प्रेम प्रकट ना करना और उपहार ना देना असंवेदनशीलता और पिछडे़पन की निशानी है। इस प्रचार में फंसने से पहले नारी को सम्मान देने की हम अपनी स्वदेशी परम्परा ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता’ को भी भूल जाते हैं। वैलेंटाइन डे विदेशी परिपेक्ष में उचित हो सकता। जिस धरती पर वासना को ही प्रेम का प्रतीक माना गया हो वहां एक दिन प्रेम के लिये समर्पित करना नितांत आवश्यक है। लेकिन हम तो उस धरा के वासी हैं जहां राधा-कृष्ण का पवित्र प्रेम कण-कण में व्याप्त है। हमारी सभ्यता-संस्कृति में वैलेंटाइन डे की कोई खास उपयुक्तता प्रतीत नहीं होती। हमारे यहां तो निस्वार्थ और सच्चे प्रेम-प्रसंगों और कहानियों की एक लम्बी फेहरिस्त है। बात वैलैंटाइन डे तक ही सीमित रहती तो ठीक था। लेकिन अब तो हैलोवीन जैसा फूहड़ त्योहार भी हमारे देश में मनाया जाने लगा है।

आवश्यकता यह है कि हम जब भी विदेशी दौरे करें या अपने देश में विदेशियों का स्वागत करें तो उनका अंधानुकरण करने की बजाय उनके समक्ष अपनी सभ्यता और संस्कृति के अग्रदूत की तरह खुद को प्रस्तुत करें। रही बात बाजार की तो यह सदैव उपभोक्ता की जरूरत के मुताबिक अपने आप को ढाल लेता है। यदि हम बाजार द्वारा कृत्रिम आवश्कता पैदा करने के कुचक्र को भेद देते हैं तो बाजार विवश होकर हमारी आवश्यकता के अनुसार व्यवहार करेगा। आवश्यकता है अपनी असली जरूरतों और परम्पराओं को पहचानने की।

राजेश कुमार ‘राज’

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