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पैर धोना और साथ में भोजन : क्या सफाईकर्मी समुदायों के उत्थान के लिए इतना पर्याप्त है?–राजेश कुमार ‘राज’

 

अक्सर हम देखते हैं कि विभिन्न राजनैतिक दलों के नेतागण चुनाव नजदीक आते ही दलितों और आदिवासियों के घरों में खाना खाने के लिए पहुँचने लगते हैं. उनके बीच एक होड़ सी लग जाती है कि कौन कितने ज्यादा से ज्यादा दलित और आदिवासी घरों में खाना खाकर उनके वोट अपनी पार्टी के समर्थन में जुटा पाता है. पहले इस कार्य को राजनैतिक दलों में द्वितीय श्रेणी या स्थानीय स्तर के नेता गण अंजाम दिया करते थे लेकिन राहुल गाँधी के कलावती नामक दलित महिला के घर जाकर खाना खाने और रात भर उसके घर में सोने के पश्चात् इस होड़ में सत्ता प्रतिषठान के शीर्षस्थ नेतागण भी शामिल हो गए हैं.

दिनांक २४ फरवरी २०१९ के दिन प्रयागराज कुम्भ (जो वास्तव में एक अर्धकुम्भ था) के दौरान हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने कुछ सफाई कर्मियों के पैर धोकर, पोंछकर और उनको अंगवस्त्र देकर सम्मानित किया. कदाचित वह दिन उन सफाई कर्मियों के जीवन का सर्वाधिक गौरवपूर्ण दिन रहा होगा. मैं अपने प्रधानमंत्री के इस कार्य की भूरी-भूरी प्रशंसा करता हूँ. इस दिन को जमीन और आसमान के मिलन की तरह देखना भी सर्वथा उचित ही होगा.

इसी कड़ी में, इस बार के प्रयागराज महाकुम्भ की समाप्ति पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी कुछ सफाई कर्मियों के साथ पंगत में बैठकर भोजन करके एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया. चूँकि सामाजिक पदानुक्रम के निम्नतम पायदान पर होने की वजह से हमारे देश में सफाई कर्मी समुदायों को इज्जत की नजर से नहीं देखा जाता है या अगर ये कहूँ कि उन्हें घृणा की नजर से देखा जाता है तो यह कथन सर्वथा अनुचित नहीं होगा. अतः योगी आदित्यनाथ ने महाकुम्भ मेले में कार्यरत सफाई कर्मियों के साथ भोजन कर ऐसे लोगो को नसीहत दी है जो इस पेशे में लगे हुए लोगों को हेय दृष्टि से देखते हैं.

अब सवाल यह उठता है कि हमारे प्रधानमंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के द्वारा उठाये गए इन क़दमों से उन सफाई कर्मियों के जीवन स्तर में क्या कोई सुधार भी आया है या यें दो घटनाएँ मात्र सांकेतिक या प्रतीकात्मक महत्त्व तक सीमित रह गयी हैं. प्रधानमंत्री द्वारा २०१९ में सम्मानित उन सफाई कर्मियों में से एक प्यारेलाल की बात कर लेते हैं. छः वर्ष उपरांत भी प्यारेलाल का परिवार आज भी प्लास्टिक की पन्नी और फटी पुरानी साड़ियों से बने एक अस्थायी से आवास में रह रहा है. जिस बस्ती में प्यारेलाल का परिवार रहता है उसमें लगभग २०० सफाई कर्मी परिवार बिना समुचित मूलभूत सुविधाओं के रह रहे बताये जाते हैं. प्रधानमंत्री जी से मिलाने से पूर्व प्रशासन द्वारा प्यारेलाल को एक घर दिए जाने का कथित आश्वासन दिया गया था जो आज तक पूरा नहीं हुआ. मात्र एक ५ लाख का बीमा उसे थमा दिया गया. इसके अतिरिक्त, उसके मासिक वेतन में ४००० रुपये की बढ़ोतरी हुई. अब उसका वेतन १२००० रुपये प्रतिमाह है लेकिन २००० रुपये की कटौती के बाद प्यारेलाल को अब केवल १०००० रुपये प्रतिमाह का वेतन मिलाता है, ऐसी जानकारी मीडिया में उपलब्ध है. जब प्रधानमंत्री द्वारा जिनका पग-प्रक्षालन किया गया, उन्ही के जीवन स्तर में कोई सार्थक बदलाव नहीं आ पाया तो अब मुख्यमंत्री जी के साथ भोजन करने से सफाई कर्मियों का कुछ भला हो पायेगा, इसकी अपेक्षा करना जरुरत से अधिक आशावान होना है. इस तरह के कार्यक्रमों का असर प्रतीकात्मक होता है . इस से ज्यादा कुछ भी नहीं. सफाई कर्मियों के पैर धोने की बजाय प्रधानमंत्री और उनके साथ खाना खाने की बजाय मुख्यमंत्री अगर सफाई कर्मियों के लिए कतिपय कल्याणकारी योजनाओ को प्रारंभ करते तो इस समुदाय के लिए अधिक श्रेयस्कर होता.

हमारे देश में एक अलिखित सी व्यवस्था या परम्परा है कि काम जितना अधिक खतरनाक होगा और जितना अधिक गन्दा या घृणित होगा, उसे करने वालों का वेतन या मेहनताना उतना ही कम होगा. सरकारी सेवाओं के पदानुक्रम में एक सफाई कर्मी सबसे निचले पायदान पर होता है. हालाँकि जो कार्य वह करता है, उसके लिए उसे एक आकर्षक वेतनमान मिलना चाहिए. लेकिन ऐसा होता नहीं है. जैसा कि हम सब जानते हैं की भारत में सफाई कार्य में जुटी जातियों के अधिकांश सदस्य स्थानीय निकायों में सफाई कर्मियों के पद पर कार्यरत हैं. इन स्थानीय निकायों के प्रशासन द्वारा सबसे अधिक शोषण इन्हीं का होता है. सन १९९० में उदारवादी आर्थिक व्यवस्था लागू होने से पहले सफाई कर्मचारियों की पक्की भर्ती हुआ करती थी. उन्हें वह सब लाभ मिलते थे जो अन्य सरकारी कर्मचारियों को प्राप्त थे. लेकिन उदारवादी व्यवस्था का सबसे पहला वार समाज के उस वर्ग पर ही हुआ जिसे सबसे अधिक प्रश्रय और सुरक्षा की आवश्यकता थी. अब सफाई कर्मचारियों की भर्ती संविदा या ठेके पर होनी शुरू हो गयी. सफाई कर्मियों को अस्थायी नियुक्तियां भी दी जाने लगी. इसका सबसे बुरा असर इनकी आमदनी पर पड़ा. अब ठेकेदारी व्यवस्था में नियोजित सफाई कर्मचारियों को ७००० से १५००० रुपये तक के मासिक वेतन पर काम करना पड रहा है. हाँ जो पुराने सफाई कर्मचारी पक्की नौकरी कर रहे हैं उनके हालात तुलनात्मक रूप से संविदा, ठेके और अस्थायी सफाई कर्मचारियों से बेहतर है. इनकी मासिक आमदनी कम होने के निम्नलिखित दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं.

1. संविदा, ठेकेदारी और अस्थायी सफाई कर्मचारियों का वेतन कम होने के कारण इनके परिवारों की आर्थिक स्थिति कथित रूप से कमजोर हुई है.

2. कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण इनके परिवार कथित रूप से कुपोषण के शिकार हो रहे हैं.

3. धनाभाव के कारण कथित तौर पर इनके बच्चों की शिक्षा बाधित हो रही है. अधिकतर बच्चे अपने परिवार की आर्थिक स्थिति को बेहतर करने के लिए बीच में ही पढाई छोड़ किसी कमाऊ कार्य को करने के लिए उद्यत हो जाते हैं.

4. कम आय के कारण इनके परिवार स्तरीय स्वास्थ्य और चिकित्सा सुविधाएं पाने में असमर्थ हैं. सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं, जिन पर इनके परिवार पूर्णतः आश्रित हैं, की हालत पहले से ही खस्ता है. गंभीर बीमारियों की स्थिति में इन्हें कर्ज लेकर किसी अच्छे अस्पताल में इलाज कराना पड़ता है. इस कर्ज के कारण ऐसे परिवारों के गरीबी रेखा से नीचे पहुँच जाने की प्रबल सम्भावना रहती है.

इनके अतिरिक्त भी बहुत सारी परेशानियों से यह समाज रोज दो-चार होता है जिनके निदान के लिए पैर धोने और साथ में खाना खाने जैसे प्रतीकात्मक आयोजनों के अलावा भी कुछ ठोस कदम इनके जीवन स्तर को उठाने के लिए लेने की आवश्यकता है. इन कदमों में सफाई कर्मचारियों की संविदा, ठेकेदारी या अस्थायी भर्ती पर पूर्णतः रोक, सफाई कार्य को एक विशिष्ट कार्य मानकार सफाई कर्मचारियों के लिए विशेष वेतनमान का निर्धारण, बेघर लोगों को सरकार की तरफ से घर आवंटन योजना में इस समुदाय के लोगों को प्राथमिकता, इनके बच्चों को नियमित व आकर्षक छात्रवृत्ति, वर्तमानं महंगाई और मुद्रास्फीति को ध्यान में रखते हुए छात्रवृत्ति के लिए परिवार की आय सीमा को २.५० लाख रुपये से बढ़ाकर एक तार्किक स्तर तक ले जाना ताकि इस समुदाय के अधिक से अधिक बच्चे लाभान्वित हों सकें एवं सफाई कर्मचारियों के परिवारों के लिए समुचित स्वास्थ्य और जीवन बीमा की व्यवस्था. सफाई कर्मी समुदायों के सदस्यों को सफाई के अलावा दूसरे काम धंधे करने के लिए भी प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए. इनका जीवन स्तर ऊँचा उठेगा तो यह समुदाय भी समाज में अपनी पहचान और स्थिति को बेहतर बनाने में कामयाब होगा. लेकिन सरकारों और राजनैतिक दलों द्वारा सांकेतिक आयोजनों के बजाय कुछ ठोस कदम उठाने की जरूरत है.

सर्व समाज में इन समुदायों की स्वीकार्यता और सामाजिक व्यवस्था में इनके समावेश के लिए हमारे समाज और सामाजिक सरोकार से जुड़े संगठनो को आगे आना पड़ेगा. सरकारी प्रयास इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए केवल मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं.
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