संस्मरण—कुछ यादें जो भुलाई न गईं — भोला सागर

आज भी वो यादें हरी हो जाती हैं,जब बच्चों को गिली-डंडा का खेल खेलते देखता हूँ। देह सिहर उठती है। हड्डियों से जैसे मांस छूटने लगता है। सोचने लगता कि इन बच्चों को गिली-डंडा का खेल खेलने से मना करूँ। पर,बच्चे कहाँ होते मानने वाले? वे तो अपनी धुन के पक्के और मतवाले होते।
एक-बार की बात है। हम बचपन के साथी मिलकर गिली-डंडा का खेल खेल रहे थे। उनमें से एक बड़ा साथी भी खेल रहा था। डंडा की बारी उसी की थी। हमारा एक साथी गिली पकड़ने को तैयार था। गिली पकड़ तो नहीं पाया। वह गिली उसकी कनपटी पर पड़ गई। गिली कनपटी पर पड़ते ही वह लट्टू की तरह घूमने लगा था। हम सभी चुपचाप तमाशा देखते रह गये थे।
आखिर,करते भी क्या? यह घटना किसी को बता भी नहीं सकते। चूँकि,घर वाले को पता चलता तो ऊपर से और सूद-मूल सहित पिटाई होती। तबके अभिभावक अपने बच्चों पर बहुत कड़ियल रूख रखते थे। इसलिए,पिटाई के डर से हम किसी को जानने ही नहीं देते थे।
यह बात मेरे जेहन में घूम रही है,जो आज तक भुलाई न गई।
भोला सागर
चन्द्रपुरा,बोकारो,झारखंड