संस्मरण: पुरानी यादें… अनीता चतुर्वेदी

संस्मरण: पुरानी यादें… अनीता चतुर्वेदी
गाँव की पगडंडियों से होते हुए जब मैं अपने पुराने घर तक पहुँची, तो लगा जैसे वक्त ठहर गया हो। दरवाजे की लकड़ी में अब भी वही पुरानी खरोंचें थीं, जो बचपन में खेल-खेल में बनी थीं। दीवारों पर हल्की सी सीलन थी, पर उनमें अब भी मेरी हँसी और शरारतों की गूँज बाकी थी।
बरामदे में कदम रखते ही बचपन की कितनी ही यादें उमड़ पड़ीं। वहीं कोने में दादी का आसन लगा करता था, जहाँ बैठकर वो हमें कहानियाँ सुनाया करती थीं। दादा जी की पुरानी कुर्सी अब भी वहीं थी, हल्की जर्जर लेकिन उतनी ही गरिमामयी। आँगन में वो आम का पेड़ अब भी खड़ा था, जिस पर हमने कितनी ही गर्मियाँ झूले डालकर बिताई थीं।
माँ अक्सर बताती थीं कि इस घर की नींव दादा जी ने अपने हाथों से रखी थी। हर ईंट में उनके सपनों की मिट्टी थी, हर दीवार में हमारी पीढ़ियों की यादें कैद थीं। यह घर सिर्फ ईंट-पत्थर का ढांचा नहीं था, यह हमारी जड़ों का हिस्सा था।
मुझे याद आया, कैसे बचपन में हम सब भाई-बहन छत पर सोया करते थे। रात में तारों की छाँव तले कहानियों का सिलसिला चलता, और ठंडी हवा हमारे सपनों को सहलाती। कभी बिजली चली जाती तो लालटेन की हल्की रोशनी में बैठकर दादी हमें गाँव के पुराने किस्से सुनातीं। वो दिन कितने सरल थे, कितने सुकून भरे!
अब यह घर समय के साथ थोड़ा पुराना हो गया है। दरवाजों की चौखटें ढीली हो गई हैं, खपरैल की छत से कहीं-कहीं सूरज की किरणें झाँकने लगी हैं। लेकिन इसकी आत्मा अब भी जीवंत है। जब भी मैं इसे छूती हूँ, लगता है जैसे मेरी उंगलियों के पोरों पर बीते वर्षों की गर्माहट उतर आई हो।
गाँव से लौटते वक्त मैंने घर के दरवाजे को एक बार फिर छू लिया, जैसे अपनी जड़ों को महसूस कर रही हूँ। यह घर सिर्फ मेरी यादों का हिस्सा नहीं, बल्कि मेरी पहचान का भी अभिन्न हिस्सा है। शायद इसीलिए, जब भी यहाँ आती हूँ, मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं खुद से मिलने आई हूँ।
अनीता चतुर्वेदी