गृहप्रवेश नव वधू का (संस्मरण) — अलका गर्ग

ससुराल में लड़की का गृहप्रवेश मतलब बहुत ही पवित्र परंतु हर्ष और घबराहट का मिश्रण पैदा करने वाला आयोजन।
शादी के बाद विदा हो कर जैसे ही मेरी गाड़ी ससुराल के दरवाज़े पर पहुँची तो मेरे पति की दादी के डर से किसी ने मेरा माथे पर ढका हुआ पल्लू एक हाथ लंबा खीच दिया।अब क्या करूँ मुझे तो कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था कैसे गाड़ी से उतरूँ किधर चलूँ ??
सहारा दे कर मुझे उतारा गया फिर मेरे सर पर पानी और आम के पत्ते का कलश रख कर दो औरतें सहारा दे कर चलाने लगीं।
गज़ भर का घूँघट और साड़ी पहनने की आदत न होने की वजह से मैं बड़ी मुश्किल से चल रही थी। एक तो नई जगह पर कहाँ देहरी कहाँ दरवाज़ा कुछ नज़र नहीं आने के कारण दो बार लड़खड़ाई और टकराई भी जिसके कारण कलश का पानी मेरे ऊपर छलक कर गिरा।नवम्बर के अंत की कड़कती ठंड में शाल स्वेटर चीरता हुआ पानी तीर की तरह लग रहा था। पर क्या करती…
पत्नी के साथ धीरे चलने के आदेश के बाद भी बार बार पतिदेव के तेज़ चलने के कारण हम दोनों को बँधा हुआ दुपट्टा खिंच कर और परेशान कर रहा था।ये पच्चीस तीस कदमों की दूरी बड़ी मुश्किल से तय करके दरवाज़े पर पहुँची तो दादी ने कड़कती आवाज़ में कहा ,”बहू चावल के कलश को दाहिने पैर से अंदर को लुढ़का दो।देखो दाहिना पैर ही लगाना।
दाहिना पैर तो लग गया पर उनकी रुआबदार आवाज़ के ख़ौफ़ से जरा ज़ोर से लग गया और लोटा आवाज़ के साथ लुढ़कता हुआ मेहमानों के बीच से होता हुआ बूआजी के चरणस्पर्श करके रुक गया।
मुझे तो लगा मानो अभी धरती फटेगी और मुझे उसमें समाना पड़ेगा पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।बूआजी ने लोटा उठा कर कहा बहू को घर भर में मैं ही सबसे ज़्यादा पसंद आई तो उसने मुझे आते ही उपहार दे दिया।अब तो ये लोटा मैं ही रखूँगी और हँसी का फ़व्वारा छूट गया।
शायद मेरी बाली उमर ने मुझे बचा लिया।
अलका गर्ग,गुरुग्राम