लघुकथा )– झूठ के दिन चार — लता शर्मा तृषा

रामप्रसाद बैंक कर्मचारी था अत:उसे अक्सर बैंक के काम के तहत किसानों के पास गाँव देहातों मे जाना पड़ता था।आज भी एक गाँव में सरपंच
के घर आना हुआ था,जहां सरपंच का बेटा चाय पानी लाकर दिया और घर के अन्य कामों में तत्परता से जुट गया रामप्रसाद को लड़का जिम्मेदार व संस्कारी लगा तो उसकी पढ़ाई,नौकरी इत्यादि के बारे में उसके पिता से पता किया उसे लड़का भा गया।
दर असल रामप्रसाद को अपनी एम ए पास सुंदर सुशील बिटिया के लिए अच्छा संस्कारवान पढ़ा लिखा छोटी मोटी नौकरी वाले लड़के की तलाश थी,सरपंच का लड़का उसके मन को जँच गया।
घर आकर बीबी से चर्चा कर पुन:लड़के के घर गया वहां फिर लड़के को चाय पानी का इंतजाम करते व घरेलु काम में मशगूल देख प्रसन्न हुआ तथा बेटी से विवाह प्रस्ताव रखा जिसे बिना किसी ना नुकुर स्वीकार किया गया ।
कुछ दिनों बाद बेटी की शादी धूमधाम से उसी लड़के से कर दिया गया।बेटी ससुराल आ गई ,हफ्ता बितते बितते लड़के का सब चाल चलन पता चलने पर बेटी ने फोन पर पिता को बताया की यह शादी तो झूठ के नींव पर टिकी थी,दरसल रामप्रसाद जिस लड़के को सस्ंकार वान मान बेटी सौंपी थी वह तो कुसंगति में बिगड़ा नवाब था तथा रामप्रसाद की बेटी व परिवार देखकर पिता से मिल चाल चलकर छल से शादी किया था।जो झूठ बीबी के आते उजागर हो गया ,सच कहते हैं लोग झूठ के दिन चार ही होते हैं जो जल्दी ही घसक जाती है,और इंसान बेनकाब हो जाते हैं।
लता शर्मा तृषा