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न्याय का तराजू — अनीता चतुर्वेदी

 

न्याय का मूल उद्देश्य है सभी को समान दृष्टि से देखना, पीड़ित को संरक्षण देना और अपराधी को दंड या सुधार की दिशा में ले जाना। परंतु जब यह तराजू उम्र, स्थिति या कानून की व्याख्या के अंतर पर झूलता है, तो प्रश्न उठते हैं—क्या यह वास्तविक न्याय है या किसी वर्ग विशेष को दी गई विशेष छूट?

आज के समय में जब समाज, तकनीक और सोच में तेज़ी से बदलाव आ रहा है, तब पुराने कानूनों की कसौटी पर आज की पीढ़ी को कसना क्या तर्कसंगत है? विशेष रूप से तब, जब किशोर अपने अधिकारों से भली-भांति परिचित हैं, लेकिन अपनी जिम्मेदारियों से आंखें मूंदे रहते हैं।

यह लेख इसी जटिल प्रश्न की पड़ताल करता है—क्या किशोर न्याय प्रणाली आज के सामाजिक परिवेश में न्याय की सच्ची भावना को दर्शा पा रही है? या समय आ गया है कि कानून भी समय के साथ स्वयं को बदले।

सामान्यतः देखा जाता हैं की,जब बिना टिकट यात्रा करने पर 10 वर्षीय बच्चा भी कानून की पकड़ में आता है, और तब कहा जाता है अब तुम समझदार हो’। पर जब 17 वर्षीय किशोर बलात्कार, हत्या या जैसे संगीन अपराध करता है, तब वही कानून कहता है—’वह नाबालिग है, उसे सुधरने का अवसर मिलना चाहिए।'”
यह विरोधाभास क्या सच में न्याय की भावना को दर्शाता है?

किशोर न्याय अधिनियम (Juvenile Justice Act) को बनाते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा गया था कि किशोर वयस्कों की तुलना में ज्यादा प्रभावित होते हैं, उनकी सोच विकसित हो रही होती है और उनमें सुधार की संभावना अधिक होती है। इस अधिनियम का उद्देश्य सजा देना नहीं, बल्कि पुनर्वास करना था।
लेकिन आज जब हम डिजिटल युग में जी रहे हैं, जहां एक किशोर 12–13 वर्ष की उम्र में ही इंटरनेट, सोशल मीडिया और डिजिटल सामग्री के माध्यम से परिपक्व जानकारियों से लैस हो जाता है, तब क्या यह तर्क पूरी तरह प्रासंगिक रह गया है?

आज का किशोर तकनीकी रूप से न केवल जानकार है, बल्कि कई मामलों में वयस्कों से भी अधिक चतुर और समझदार प्रतीत होता है। वह जानता है कि कैमरे कहां लगे हैं, वह गूगल करके अपराध छुपाने के तरीके खोज सकता है, और कई बार अपराध को अंजाम देने से पहले वह इसकी योजना भी बनाता है।
ऐसे में सवाल यह है कि क्या वह सच में “अपरिपक्व” है? या फिर वह ‘किशोर’ होने के अपने अधिकार का इस्तेमाल, या कहें दुरुपयोग कर रहा है?

समाज यह देख रहा है कि जघन्य अपराधों में संलिप्त किशोर अक्सर न सिर्फ संगठित ढंग से अपराध करते हैं, बल्कि उन्हें बच निकलने की कानूनी राहें भी पता होती हैं। वे जानते हैं कि एक खास उम्र से नीचे होने पर उन्हें फांसी या आजीवन कारावास नहीं मिलेगा, और इसीलिए कुछ मामलों में अपराध की उम्रदराज सीमाओं को भी चालाकी से साधा गया है।

क्या यही वह ‘न्याय’ है जिसकी हमारे संविधान ने कल्पना की थी?
क्या अपराध की गंभीरता से अधिक महत्त्व अपराधी की उम्र को देना तर्कसंगत है?

समाज और व्यवस्था को अब यह स्वीकार करना होगा कि ‘अपराध की प्रकृति’, ‘नियत’, और ‘आपराधिक मानसिकता’ को भी उतना ही महत्व मिलना चाहिए जितना ‘उम्र’ को मिलता है।
कानून में संशोधन कर यह व्यवस्था बनानी होगी कि यदि कोई किशोर अपराध को जानबूझकर, पूर्व योजना के साथ और साक्ष्य छिपाने की मंशा से करता है, तो उसे किशोर नहीं, वयस्क के रूप में ही न्याय प्रक्रिया में लाया जाए।

हम एक ऐसे युग में प्रवेश कर चुके हैं जहाँ उम्र भले ही कम हो, पर समझ, चतुराई और अपराध की क्षमता किसी वयस्क से कम नहीं रही। कानून को अब सिर्फ आंकड़ों या परंपरागत सोच से नहीं, बल्कि समाज की बदलती हकीकत को ध्यान में रखकर निर्णय लेने होंगे।

“सिर्फ उम्र नहीं, अपराध की समझ और नीयत भी न्याय की कसौटी बननी चाहिए।

अनीता चतुर्वेदी
ग्रेटर नोएडा…

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