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साहित्य में समाप्त होती पढ़ने की रुचि, — अलका गर्ग

 

साहित्य समाज का दर्पण है..यह बात शत् प्रतिशत सही है।साहित्य समाज की
गतिविधियाँ,कार्यकलाप,बुराई ,अच्छाई,पतन,विकास सभी का हुबहू खाका खींचता है।
किसी भी देश के साहित्य को पढ़ कर उस देश का भूत और वर्तमान अच्छी तरह से जाना का सकता है क्योंकि साहित्य दर्पण की भाँति सब कुछ साफ़ दिखाता है।समसामयिक साहित्यकार हरेक घटना विशेष का उल्लेख बड़ी ही बारीकी से करते हैं जिससे सदियों बाद भी पढ़ कर कोई भी रूहानी तौर पर उसी काल में पहुँच कर सब कुछ महसूस कर सकता है। आज साहित्यकारों की पठन में कम होती रुचि का होना साहित्य जगत के लिये बहुत ही निराशाजनक दौर है।साहित्य मैं पठन,पाठन,मनन और लेखन सभी का समान स्थान होता है।बिना पठन के लेखन कला कमजोर पड़ जाती है।पठन द्वारा ही लेखन के विभिन्न पहलुओं,विधाओं को समझ कर कोई भी साहित्यकार अपनी लेखन कला में निखार लाता है।पठन के अभाव में साहित्य त्रुटिपूर्ण होने लगेगा और अज्ञानतावश बहुत सी अत्यंत महत्वपूर्ण विधायें लुप्त होती जायेंगी।
पढ़ने की रुचि कम होने का दोष हम किसे दें?? क्या व्यस्तता को …या समयाभाव को…जल्दबाज़ी को या अहंकार को?? पहले घरों में पुस्तकों से भरी हुई अलमारियाँ शान की बात मानी जातीं थीं। हर घर में एक छोटा सा पुस्तकालय ज़रूर होता था हर उम्र के लोगों के लिए पुस्तकों पत्रिकाओं का संग्रह होता था।पूरा परिवार मनोयोग से पढ़ता था।परंतु अब तो समाचार पत्र की भी स्थिति दयनीय हो गई है।जिसका सभी बेसब्री से इंतज़ार करते थे और लगभग आधा दिन उसी को पढ़ कर गुज़ारते थे।टेलीविज़न के अनगिनत समाचार के चैनल और उसमें दिखाई जाने वाली तड़क भड़क के साथ तेज तर्रार खबरें सभी को भाने लगीं और लोगों ने अख़बार पढ़ना ही कम कर दिया।राशिफल,योग के तरीक़े,दवाइयों के नुस्ख़े जो बड़े चाव से पड़े जाते थे,अब सब देखे जा सकते है।
हर आयु वर्ग के लोगों के लिए कितनी ही साप्ताहिक मासिक पत्रिकायें निकलतीं थीं और कितनी बेसब्री के साथ अगले अंक का इंतज़ार किया था।पार्क,छत,स्टेशन,प्रतीक्षालय हर जगह सब पढ़ते ही दीखते थे।सफ़र तो पुस्तक के बिना हो ही नहीं सकता था।उपन्यास,पत्रिकाओं की दुकानें गुलज़ार रहतीं थीं।
अब पुस्तकों की जगह पूरी तरह से मोबाइल ले चुका है और मोबाइल भी पढ़ने से ज़्यादा बात करने,चैट करने,गेम खेलने,सर्च करने और लिखने के काम में लिया जा रहा है।जबकि पढ़ने के लिए मोबाइल पर भी असीमित सामग्री उपलब्ध है।परन्तु आज मोबाइल पर रफ़्तार से फिसलती उँगलियाँ मन को एक जगह टिकने ही नहीं देती।कम से कम समय में अधिक देखने का उतावलापन उन्हें ठीक से पढ़ने नहीं देता।बच्चे तो क्या बड़ों की भी आजकल पढ़ने में रुचि समाप्त हो गई है। जल्दबाज़ी में आधा अधूरा पढ़ कर कई महत्वपूर्ण बातों से अनिभिज्ञ रह जाते हैं।शादी या किसी आयोजन के कार्ड,प्रोग्राम,सरकारी ग़ैरसरकारी नोटिस,सूचना पत्र यहाँ तक कि किसी भी प्रतियोगिता के नियम और विषय भी ठीक से पूरे नहीं पढ़ कर इधर उधर फ़ोन करके जानकारी लेते रहते हैं।
किसी भी साहित्य के लिये यह बहुत ही निराशाजनक और अशोभनीय बात है। हम जल्दीबाज़ी में किसी का लिखा नहीं पढ़ रहे हैं तो दूसरे भी उतने ही व्यस्त हैं और वे भी ज़रूर ही हमारा लिखा हुआ भी नहीं पढ़ रहे होंगे। तो फिर लिखने का क्या औचित्य रह जाता है।यह प्रक्रिया तो साहित्य की सारे रास्ते ही बंद कर रही है।चिट्ठियों का बंद होना भी पढ़ने के उत्साह को कम करने के में अपनी छोटी सी भूमिका निभा गया।
पहले टेलीविज़न,और अब सोशल मीडिया के बढ़ते प्रचार ने साहित्य की दुनिया में बड़ी घुसपैठ की है।हमारे सभी क्षेत्रीय भाषी प्रसिद्ध उपन्यास,धर्मग्रन्थ की कथायें,दिग्गज़ साहित्यकारों की कहानियाँ ,पंचतंत्र की कहानियाँ सभी के वीडियो youtube पर उपलब्ध है।सारे सवालों के जवाब गूगल पर हैं।अब सभी को पढ़ने की बजाय देखना सुनना ज़्यादा पसंद आने लगा है।लगभग दो दशकों से बहुत तेज़ी से पठन की क्षमता का ह्वास हुआ है।आज TV सीरियल और सिनेमा के माध्यम से हमारे सभी नामी लोगों की जीवनी,सारा इतिहास सभी देख रहे हैं।रामायण महाभारत आज तक बहुत कम लोगों ने पढ़ीं हैं लेकिन देखी करोड़ों लोगों ने है।जब सभी कुछ बहुत ही मनोरंजक रूप में आसानी से देख सकते हैं तो पढ़ने की तकलीफ़ कौन उठाये?? बच्चे तो क्या हर वर्ग के लोगों को देखना अधिक मनोरंजक लगने लगा तो साहित्य में पढ़ने की रुचि तो कम होनी ही है।परंतु साहित्य के क्षेत्र में पठन में रुचि समाप्त होना,साहित्य के एक महत्वपूर्ण अंग का बेकार होना है।

अलका गर्ग, गुरुग्राम

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