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आज का युवा क्यों अकेला है.? — नवीन शर्मा UPSC faculty

हाल ही में एक खबर आई कोटा में एक और बच्चे ने आत्महत्या कर ली तो प्रश्न फिर उठा ऐसा क्या हो गया हमारा युवा क्यों इतना अकेला है कि वो एक एग्जाम पास न कर पाए तो, नौकरी छूट जाए तो, या थोड़ी सी भी समस्या आए तो आत्महत्या कर लेता है आइए जानते है :
आज के सोशल मीडिया के युग में कहने के लिए तो इंसान के पास हजारों दोस्त हैं किंतु ऐसा कोई नहीं जो उससे पूछे की जीवन में क्या चल रहा है.?
इस सोशल मीडिया ने हजारों लाइक प्रोफाइल विजिट के झंझट में इंसान को इतना बहुत फंसा दिया और उसे उन सब लोगों से दूर कर दिया जो उसकी प्रगति में उसके साथी थे। जो उसके सुख-दुख में उसके साथ खड़े होते थे।
बच्चा रो रहा है तो हाथ में मोबाइल दे दो
जीवन में परेशान हो तो यूट्यूब पर वीडियो देख लो
ज्ञान चाहिए यूट्यूब पर मिल जाएगा
दिखावे की हंसी चाहिए इंस्टाग्राम आपके लिए है
बॉडी के टेंपरेचर को मापने के लिए तो कई यंत्र हैं लेकिन दिमाग के इस अकेलेपन को कैसे मापा जाए।
लोगों के मैसेंजर हाय और हेलो के मैसेज से भरे पड़े है।
और एक होड लगी पड़ी है किसके ज्यादा फ्रेंड्स होंगे फ्लोवर होंगे
इन सब के कारण इंसान ने वास्तविक जीवन को जीना कितना कम कर दिया। बचपन का वो शोर शराबा छुपन छुपाई, पिट्ठू, कंचे आदि बीते युग की बाते हो गई, अब लड़कियां गुड़िया को ना तो पहले की तरह सजाती है न अब गुड्डे गुड़ियां की शादी होती है। घंटों बैठ कर दोस्तों से बात करना गुजरे जमाने की बात हो गई अब दोस्तों से फेसबुक पर तो शायद बात हो जाती है लेकिन आमने-सामने बैठ कर बात किए कितना समय बीत गया अहसास ही नहीं है।
संयुक्त परिवार का विभाजन हुआ तो दादी नानी की कहानियां चली गई। पहले बच्चा बचपन का काफी लंबा समय दादी नानी के साथ गुजारता था। नोट: नाना और दादा से थोड़ा भय होता था और बच्चे उनसे केवल तभी ज्यादा बोलते थे जब कोई राशि चाहिए हो। बाकी अपवाद काफी है। बड़े परिवार के कारण कब बच्चे बड़े हो जाते थे पता ही नहीं चलता था। आज माता पिता बच्चे को बचपन में ही अपनी प्राइवेशी के नाम पे या तो हॉस्टल भेज देते है। बचपन का प्ले स्कूल, और बाद का हॉस्टल बच्चे को एकांकी बना देता है। अब ना मां बाप बच्चे का चेहरा देख उसकी समस्या समझ पाते है, न बच्चा उन्हें अपने मन की पीड़ा बता पाता है। और वो निर्भर हो जाता है सोशल मीडिया जैसे तरीकों पे। और सोशल मीडिया उन्हें देता है, दिखावे वाली जिंदगी, बनावटी हंसी, नग्नता,कामुकता और बच्चे दौड़ पड़ते है इस स्वर्ण मृग को पाने। और न जाने कितने इस स्वर्ण मृग के कारण रावण बन उन्हें और उनके सपनों को हरण कर जाते है।
माता-पिता अपने सपनों का भार बच्चों कैसा डाल देते हैं की बेटा तुझे तो इंजीनियर बनना होगा चाहे बच्चे का मन हो या ना हमें समाज में दिखावा करना है कि हमारा बच्चा कोटा से इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहा है इस दिखावे चक्कर में बच्चों से यह नहीं पूछा जा रहा की बेटा तेरा मन लग रहा है, तू ठीक तो है। मां बाप का पहला प्रश्न आता है, तैयारी कैसी चल रही है, नंबर अच्छे आए हैं या नहीं
यह बच्चे को अवसाद की तरफ धकेल देता है अब उसके पास जो बचता है उसके हॉस्टल के कुछ दोस्त या फिर कपड़ों के ढेर में छुपाया गया मोबाइल और सोशल मीडिया।
हम पूरा दोष बच्चों और सोशल मीडिया को नहीं दे सकते हैं कहीं ना कहीं हमें अपनी जिम्मेदारी भी देखनी होगी आज आम परिवारों की कहानी है पिता ऑफिस से आकर अपने मोबाइल पर लग जाता है मां अपने पर और बच्चे अपने पर फिर कैसे परिवार एक दूसरे की समस्याओं को समझ पाएगा
आज आवश्यकता है परिवारों को कुछ समय एक दूसरे को देने की कुछ समय के लिए मोबाइल को छोड़कर बच्चों के साथ खेलने की उनका दोस्त बनाकर उनकी समस्या को जानने की आपको अचंभा होगा कि झांसी, ललितपुर, रायपुर जैसे स्थानों पे माता पिता अपने बच्चों को समय देने के लिए उन्हें पार्क लेकर जाते है, उनके साथ समय बिताते है , खेलते है पर बड़े शहरों में न जाने ये सब कहा खो गया है।

नवीन शर्मा
UPSC faculty

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