अंधी दौड़ — राजेन्द्र परिहार “सैनिक”

श्रेष्ठतम मानव जीवन और श्रेष्ठतम बुद्धि पाकर भी श्रेष्ठ मनुष्य दिग्भ्रमित भ्रमित हो, आजीवन भागता रहता है। निस्वार्थ और सबके हितों को दरकिनार कर स्वयं सिद्धि में संलग्न रहता है। आदर्श भावों को भुलाकर सिर्फ धन (अर्थ) के पीछे ही दौड़ता रहता है। धन और साधन और विलासिता की स्पर्धा में अंधा हुआ मनुष्य धन
से कभी भी संतुष्ट नहीं होता, अपितु दूसरे के हिस्से को हड़पने को भी छल कपट करता रहता है। लखपति से करोड़पति और करोड़पति से अरबपति बनने की अंधी दौड़ में दौड़ता रहता है। इस कभी ना पूरी होने वाली आकांक्षा का शिकार मनुष्य जीवन में कभी संतुष्ट नहीं हो पाता है। ज़िन्दगी मोह माया के पीछे भागते भागते खत्म हो जाती है और सामने मौत का गड्ढा सामने आने पर अपनी भूलों, पापों का आभास होता है, किंतु उनसे
मुक्त होने से पहले ही मौत का अलार्म बज उठता है और सारी जमा दौलत यहीं छोड़ कर संसार से विदा हो जाता है।
राजेन्द्र परिहार “सैनिक”