ढूंढती हूं वह आंगन — रिंकी माथुर

मैं ढूंढती हूं वह आंगन जो आज फ्लैटों में जाने कहां गुम हो गया,
वह आंगन,वो आम का पेड,वो तुलसी का पौधा…
जाने कहा खो गया।
वह चिड़ियों की चहचहाट, वो मैना का आना,वो दादी का आंगन मे सुबह-सुबह झाडू बुहारना…
मैं ढूंढती हूं वह आंगन जो आज फ्लैटो मे जाने कहा गुम हो गया।
दीवाली की रात मे,
वो आंगन, छतो पर दीपो,और तारो का जगमगाना,
वो माँ का सुबह-सुबह रंगोली बनाना,
मै ढूंढती वो आंगन
जो आज फ्लैटो मे जाने कहा गुम हो गया।
वह बारिश की पहली बूंद का आंगन में आना,
एक सौंधी सी खुशबु का अहसास करा जाना,
सखियो संग आंगन मे खूब धमा चौकडी मचा जाना।
माँ का फिर सबको प्यार से बुलाकर अनरसे खिलाना।
मैं ढूंढती हूं वह आंगन जो आज फ्लैटो मे जाने कहा गुम हो गया।
मां के पूतो ने वह काम कर डाला,
हर आंगन को टुकडो मे कर डाला।
कही ड्राइंग रूम तो की बैडरूम बना डाला,
बाकी बचा काम बिल्डर्स ने कर डाला,
उसी आंगन के फ्लैटो पर फ्लैट खडा कर डाला।
रिंकी माथुर