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मानवी — शिखा खुराना 

 

बरसों से मानवी अपने जीवन की किताब में दुःख की इबारतें लिखती आई थी। पर हर बार जब किस्मत ने उसे तोड़ना चाहा, उसने अपने विश्वास की स्याही से उम्मीद का रंग भर दिया।

पति की नौकरी चली गई थी। घर की चूल्हा-चौका अब एक जिम्मेदारी नहीं, रोज़ी-रोटी का ज़रिया बन गया था। सुबह के उजाले से पहले वह रसोई में जुट जाती—गरम फुलकों की महक, आलू की सब्ज़ी की खुशबू और उसके माथे से टपकती पसीने की बूँदें… सब कुछ उसके आत्मसम्मान का हिस्सा बन चुके थे। मोहल्ले की गलियों में साइकिल से खाना पहुँचाते हुए जब लोग उसे देखते, वो सिर्फ़ एक स्त्री नहीं, हौसले का दूसरा नाम लगती।

धीरे-धीरे ज़िंदगी ने रफ्तार पकड़ी। बेटी दसवीं की पढ़ाई में व्यस्त थी, बेटा पहली नौकरी के लिए तैयारी कर रहा था। लेकिन नियति को शायद यह स्थिरता रास न आई।

एक शाम पति को तेज बुखार हुआ। अस्पताल के टेस्ट ने जैसे सब कुछ सुन्न कर दिया—लीवर फेल हो चुका था। डॉक्टरों ने साफ़ कहा, “ट्रांसप्लांट ही एकमात्र उपाय है।”

फिर शुरू हुआ संघर्ष का एक नया अध्याय। मानवी ने गहने बेचे, फर्नीचर गिरवी रखा, अपने सपनों का आशियाना तक बैंक के हवाले कर दिया। पर सबसे कठिन था—अपने आत्मसम्मान को गिरवी रखना और मदद की याचना करना।

दिल्ली के अस्पतालों से जवाब मिला—“डोनर नहीं है।” अब उम्मीद हैदराबाद की ओर देखने लगी। इसी बीच बोर्ड की परीक्षा और बेटे की पहली नौकरी की जद्दोजहद। बेटे ने एक हफ्ते की छुट्टी ली और पिता को हैदराबाद ले गया।

मानवी दिल्ली में रुकी—क्योंकि माँ सिर्फ पत्नी नहीं होती। वह बेटी की ढाल बनी रही, मगर हर दिन मोबाइल की स्क्रीन पर निगाहें टिकाए रही।

हर बार जब फोन बजता, दिल सिहर उठता। फिर एक शाम फोन की रिंग बजी—और मानवी की दुनिया थम गई।

“माँ… हम उन्हें नहीं बचा सके…”
बेटे की टूटी आवाज़ जैसे समय को चीरती चली गई।

हैदराबाद से जब शव दिल्ली पहुँचा, मोहल्ले की हर आँख नम थी। मानवी ने पति का चेहरा देखा—सुकून भरी नींद में था वो, जैसे अब कोई चिंता नहीं रही।

और मानवी… पत्थर बनी खड़ी रही। फिर अचानक एक हूक उठी, वो शव से लिपटकर फूट पड़ी—
“मैंने कभी हार नहीं मानी… पर आज… आज मैं हार गई।”

वो ज़मीन पर गिर पड़ी थी—नारी नहीं, एक टूटा हुआ सपना बनकर।

उस शाम सूरज डूबा तो था… पर मानवी की आँखों में जो अंधेरा उतरा, वो रात से गहरा था।

और फिर… उसी अंधेरे में वह एक उम्मीद की लौ बन गई।
जिसने देखा, कहा—”ये औरत नहीं, जीती-जागती मिसाल है।”
क्योंकि कुछ हारें इंसान को नहीं तोड़तीं—बल्कि इंसानियत को और गहराई देती हैं।
शिखा ©®

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