मेरे गुजरात प्रवास संस्मरण शीर्षक : सेब बनाम सेव लेखक : राजेश कुमार ‘राज’

बात १९८५ के साल की है. उस वक्त मैं गुजरात राज्य के सौराष्ट्र अंचल के अमरेली शहर में पदस्थ था. अमरेली में मैंने नवम्बर १९८४ के अंतिम सप्ताह में कार्यभार संभाला था. उन दिनों मैं गुजराती भाषा पर अपनी पकड़ बनाने की कोशिश कर रहा था. कुछ अच्छे गुजराती लड़के मेरे दोस्त भी बन गए थे. वैसे मुझे किसी भी उम्र के व्यक्ति के साथ घुलने-मिलने में ज्यादा वक्त नहीं लगता है. हर आयु वर्ग का व्यक्ति मुझसे बातें करने के लिए लालायित रहा करता था क्योंकि मैं सामने वाले को जो पसंद आये ऐसी बातें करने में माहिर था. बड़ी उम्र के लोग मुझे मिलने के लिए सामान्यतः दोपहर में आया करते थे. अपने सरकारी कार्य में व्यस्त होने के बाद भी मैं उनके साथ बात करने का वक्त निकाल ही लिया करता था. इसी प्रकार युवा मित्र मुझसे मिलने के लिए शाम का वक्त चुनते थे. रात्रि भोजन के पश्चात् सोने से पहले तक का अपना समय मैं गुजरात पुलिस में कार्यरत अपने मित्रों के साथ बिताना पसंद करता था. मेरे कार्यालय के आसपास रहने वाली युवतियां भी मुझसे बात करने के लिए ताका-झांकी करती रहती थीं. हिंदी भाषी होने के कारण मैं उनके आकर्षण का केंद्र बना हुआ था. कुल मिलाकर मैं वहां हर आयु वर्ग के स्त्री-पुरुषों का पसंदीदा युवक था. मेरे मिलनसार व्यवहार के कारण मुझे अपने सरकारी कामकाज में भी मदद मिल रही थी. अतः सभी से बातचीत करते रहना मेरे लिए व्यक्तिगत और व्यवसायिक, दोनों ही, तौर पर हितकर साबित हो रहा था. थोड़े ही दिनों में मैंने अपने काम पर गहन पकड़ बना ली थी और मेरे वरिष्ठ अधिकारी मेरे काम की प्रशंसा करते नहीं थकते थे.
घटना वर्ष १९८५ की है. शाम का सुहाना वक्त था. मैं अपने दो दोस्तों रावल भाई (रावल भाई का पूरा नाम इस वक्त मुझे याद नहीं आ रहा है) और के. आर. साधू के साथ घर पर बैठा था. रावल भाई और साधू भाई के भी कुछ दोस्त आये हुए थे. मैं यहाँ बताता चलूँ कि रावल भाई गुजरात राज्य नागरिक पुरवठा (सप्लाई) निगम लिमिटेड के अमरेली स्थित गोदाम में क्लर्क थे और साधू भाई गुजरात औद्योगिक विकास निगम लिमिटेड, अमरेली में एक कनिष्ठ इंजीनियर थे. हमारी मित्रता बड़ी प्रगाढ़ थी. तीनों ही कुंवारे थे और हम सब अपने-अपने करियर के शुरुआती दौर में थे. उस शाम हमने एक छोटी सी पार्टी आयोजित करने का फैसला किया था. उसी की तैयारी में लगे हुए थे. खाने-पीने के सभी सामानों की लिस्ट बन चुकी थी. परन्तु मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे कुछ छूट गया हो. तब मैंने अपने दोस्तों को कुछ सेब (एप्पल) लाने का भी सुझाव दिया. फलों की लिस्ट से सेब ही छूट रहा था. खैर सेब को भी सूची में सम्मिलित कर लिया गया. तत्पश्चात एक दोस्त सामन लाने हेतु बाज़ार के लिए निकल पड़ा. लगभग आधे-पौन घंटे के बाद वह दोस्त बाज़ार से सामन खरीद कर ले आया. सब सामान आ गया था लेकिन मुझे सेब कहीं भी दिखाई नहीं दे रहे थे. मैंने आतुरतावश उस दोस्त से पूछ ही लिया कि क्या वह सेब नहीं लाया था. उसने हाँ में सिर हिलाया और नमकीन सेव का एक पैकेट मेरे सामने रख दिया. तुरंत मुझे अपनी गलती का अहसास हो गया. मैंने उसे हिंदी में सेब लेन के लिए कहा था और वो दोस्त नमकीन सेव ले आया क्योंकि गुजराती में सेब (एप्पल) को सफरजन बोलते हैं और नमकीन सेव को सामान्यतः सेव कहा जाता है. मुझे चाहिए था कि उसे सफ़रजन लाने के लिए कहता. उसने सेब को सेव समझ लिया और सेब के स्थान पर सेव ले आया. यह देख कर हम सभी दोस्त खिलखिलाकर हंस पड़े. भाषाई बाधा कभी-कभी ऐसे खेल करा देती है. आज भी उस घटना को याद कर मेरे चेहरे पर एक स्मित आ जाती है.
यदि यह संस्मरण रावल भाई और साधू भाई के संज्ञान में आ जाता है तो मैं दोनों से विनती करूंगा कि वें मुझ से सम्पर्क करने का कष्ट करें। 9971456500 मेरा मोबाइल नम्बर है।
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