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प्रतिस्पर्धा और अवसाद– लता शर्मा तृषा

 

प्रतिस्पर्द्धा की भावना किसी भी, किशोर, युवा या पुरुष अथवा महिला को अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए सतत प्रयास करने के लिए प्रेरित करते रहती है। इससे उनमें ऊर्जा भरते रहती है। इसके अभाव में अधिकतर भटकाव और दिशाहीनता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। लेकिन प्रतिस्पर्द्धा का स्याह पक्ष भी है जो अतिरेक की स्थिति में अवसाद की ओर अग्रसर कर देता है। प्रतिस्पर्द्धा के भाव रखने वाले कई बार अपने प्रतिस्पर्धी की सफलता और अपनी असफलता को सहन नहीं कर पाते। यदि असफलता का दौर कुछ लंबा चल गया और जिन्हे अपने से कमज़ोर मानते हैं वह सफ़ल हो गया तो यह अंदर तक आहत कर देता है और अवसाद के गर्त में धकेल देता है। इसीलिए प्रतिस्पर्द्धा को सापेक्ष रूप में जारी रखते हुए भी विफलता की स्थिति में निरपेक्ष रहते हुए अवसाद से बचने का प्रयास करना चाहिए।

प्रतिस्पर्धा–होंड़,खुद की काबलियत साबित करने की।
आज हर किसी पद,प्रतिष्ठा को पाने के लिए होंड़ मजी है ,प्रतियोगी परीक्षाओं ,प्रतियोगिताओं के द्वारा अपने मनचाहे मुकाम पाने के लिए देना दिलाना पड़ता है,वो चाहे पढ़ाई के लिए हो चाहे उच्च पद के लिए और तो और घरों में भी फलां के घर ए चीजें है तो हमारे घर भी होनी चाहिए ।
आज हर युवा का सपना ऊंची कुर्सी है अफसर बनने की चाह ,ललक।इसके लिए होने वाली प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए प्रतिस्पर्धा में स्वयं को साबित,स्थापित करने जी तोड़ मेहनत करते हैं,सफल होते हैं तब तो ठीक और नहीं तो निराशा में अवसाद ग्रस्त होने लगते हैं।

अवसाद :-गहन निराशा का नाम है जिसमें इंसान इस कदर डूब जाता है कि उसे सारी बातें,चीजें नीरस लगने लगती है दुनियाँ बेरंग सी हो जाती है रिश्ते नाते बेमानी लगने लगते हैं कुल मिलाकर विरक्ति आ जाती है वो इंसान असहज हो अवसाद के तहत कभी कभी ऐसा कुछ कर जाता है की अपनों के दिलों को दर्द दे जाता है।
प्रतियोगी होना अच्छा है प्रतिस्पर्धा जरुरी है किंतु असफल होने की स्थिति में अवसादित होना घातक है।

लता शर्मा तृषा

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