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शीर्षक: दादी मां की जादुई पोटली — राजेन्द्र परिहार “सैनिक

 

दादी मां थी बड़ी अलबेली, बच्चों के संग बच्ची बन जाती जैसे हो कोई बचपन की सहेली। सफ़ेद साड़ी, सफ़ेद बाल,गौरवर्ण, पोपला सा हंसता हुआ आकर्षक मुखड़ा, आंखों पे मोटे चश्मे से झांकती स्नेह भरी आंखें,दिन भर बच्चों के संग खेलती, कहानियां सुनाती, बच्चों में बच्ची बन जाती।

हाथ में सहारे के लिए बेंत लिए और एक लाल रंग की पोटली जो हमेशा दादी की साड़ी में खौंसी हुई रहती। संयुक्त परिवार में ढेर सारे बच्चे चुन्नू मुन्नू टुन्नू और शैतान की नानी मुन्नी भी दिन भर दादी को तंग करते रहते थे। दादी मां को भी उनकी मस्ती छेड़खानी खूब मन भाती। जब बच्चे स्कूल चले जाते तो दादी मां उदास मन आंगन में बैठी रहती। बच्चों को ये जानने
की ललक थी कि इस पोटली में ऐसा क्या है जो दादी हमेशा संभाले रहती है,मज़ाल की कोई पोटली को हाथ तो लगा दे। बच्चों की मां सुजाता को भी आश्चर्य होता कि बीस साल से मैं देख रही हूं सासू मां सांस लेना भूल जाए लेकिन पोटली को नहीं भूलती। आज उसके भी मन में आया कि पूछ ही लेती हूं कि इस पोटली में ऐसा क्या है। सुजाता के पूछने पर दादी मां रहस्यमय हंसी में हंसते हुए बोली “बहू इस पोटली में प्यार भराआकर्षण है,जिसके कारण बच्चे कौतूहल वश मेरे आस-पास
ही बने रहते हैं। इस पोटली में प्यार दुलार और ममत्व वात्सल्य भरा धन है जो मैं इन बच्चों में बांटती रहती हूं। दादी मां ने बहू को एक तरफ ले जाकर वो पोटली खोल कर दिखाई तो उसमें कुछ पुराने सिक्के जो अब नहीं चलते थे। कुछ छोटे छोटे से खिलौने, बच्चों के खेलने की कंचिया,,बस यही सामान था।दादी मां ने बहू को सख्त हिदायत भी दी कि बच्चों को कभी मत बताना वरना उनका पोटली वाला आकर्षण खत्म हो जाएगा
सुजाता समझ गई कि ये दादी मां का बच्चों के प्रति प्यार दुलार ही है

(राजेन्द्र परिहार “सैनिक)

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