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वह गर्मी की छुट्टियाँ  — लता शर्मा तृषा

 

हमारा छोटा सा गांव कस्बे से पांच की.मी.की दुरी पर अति घने बबूल के पेड़ों बीच शिवनाथ नदी के तट पर बसा था जहां की आबादी उन दिनों पाँच -सात सौ से ज्यादा नहीं रही होगी, कस्बे तक जाने आने के लिए पगडंडी से पैदल या फिर बैलगाड़ी साधन था।

हमारे पिता के दो बागीचे थे जहां सभी प्रकार के पेड़,फल आदी थे। गर्मी की छुट्टियों में चाचा,बूआ,मामा,मोसी के बच्चे गांव घूमने कहिए या मस्ती कहिए करने आ जाते और हम लोगों का उधम शुरू हो जाता,समय या धूप, गर्मी से हमें कोई लेना देना नहीं होता हमारा जब मन करता बगीचा जाकर आम कमियां,जामुन मूंगफली वगैरह खाते तोड़ते ,झूला झुलते,छुपा छुपाई, गुल्ली डंडा,बांटी खेलते घर आने पर डांट पड़ती भी तो हंसी में उड़ा देते ,शाम को सभी भाई बहन नदी पर धावा बोलते नदी के रेत में सब्जी ,भाजी,खरबूज, तरबूज, ककड़ी का मजा लेते,खूब तैरते,नाव में घुमते हमें मल्लाह की जरूरत भी नहीं पड़ती भाई लोग चप्पू चला लेते , हमें कोई रोक ही नहीं सकते किसी बात के लिए क्योंकि आसपास के सारे गांव दादा जी की गौटियाई में थे।
हम भाई बहन राम लीला, कृष्ण लीला भी खेलते तथा सारे
किरदार भाई बहन ही निभाते, डांस-ड्रामा सभी । बहुत मज़ा आता था साथ खाना,सोना, खेलना वो बचपन काश एक बार फिर लौट आता।

लता शर्मा तृषा

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