वो अजनबी मददगार, — अलका गर्ग,गुरुग्राम

नई दिल्ली स्टेशन से विभिन्न राज्यों के लिए चलने वाली राजधानी ट्रेन लगभग शाम को चार बजे के आस पास ही हैं।
मैं अपनी बेटी के पास गुरुग्राम आई हुई थी।उस समय हम उड़ीसा के सागर तट पर स्थित औद्योगिक नगरी पारादीप में रहते थे।मुझे भुवनेश्वर वाली राजधानी पकड़नी थी।बेटी ऑफिस में थी।मैं अकेले ही लगभग दो बजे कैब ले कर घर से निकली।काफ़ी समय था मेरे पास लेकिन अचानक गाड़ी ख़राब हो गई।पंद्रह मिनट की कोशिश के बाद ड्राइवर बोला अभी देर लगेगी।आप वो सामने वाली बस ले लीजिए जिए स्टेशन के पास उतरेगी।हाईवे पर दूसरी गाड़ी बुक करने का समय बचाते हुए मैंने तुरंत वही बस ले ली।लेकिन बस ने तो मुझे स्टेशन से बहुत पहले ही उतार दिया।अब क्या करूँ?बड़ा सूटकेस भारी बैग और पर्स ,और ट्रेन का भी समय हुआ जा रहा था।कोई टैम्पो ,रिक्शा या कुली भी नहीं दीख रहा था।अब मुझे बहुत घबड़ाने होने लगी।दूर से आता हुआ एक रिक्शा दीखा पर उसमें भी आदमी बैठा था।अचानक वह रिक्शा मेरे पास रुका।उस आदमी ने पूछा स्टेशन जाना है? मैंने कहा हाँ तो बोला जल्दी बैठिए वरना मेरी ट्रेन छूट जाएगी।हज़ारों आशंकाओं और डाँट के दर के बावजूद मैं उस अजनबी के साथ रिक्शे में बैठ गई।वह इंडियन आर्मी का जवान था छुट्टियाँ बिता कर हमारी सुरक्षा के लिए वापस ड्यूटी पर जा रहा था।उसको गुआहाटी वाली राजधानी पकड़नी थी जो मेरी से पहले थी।
पहुँचते ही उसने रिक्शावाले को सौ रुपये थमाये और “मुझे नमस्ते बहन फिर मिलेंगे” ..कहते हुए मिनटों में ग़ायब हो गया।इस वक़्त तो मैं भी हड़बड़ी में थी।मेरी ट्रेन लग चुकी थी।पाँच ही मिनट में ट्रेन चल दी मैं घबराहट से अभी भी काँप रही थी।आँख बंद करके सोचने लगी कि कौन था वो अजनबी मददगार जो अचानक मेरी मदद को आया और मेरे हिस्से के भी पैसे दे कर हवा की तरह ग़ायब हो गया।
एक जवान ने अपनी बहन की सहयता करके सिपाही बनने के समय देश को दिया हुआ अपना वचन निभा दिया।
अलका गर्ग,गुरुग्राम