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आलेख-सफ़ेद कौआ — मैत्रेयी त्रिपाठी

 

“भगवती चरण वर्मा जी “होते तो मैं उनके सम्मुख खड़ी होती ,अपने प्रश्न लेकर ।
जिद करती “बाबा “आपने ग़लत क्यों लिखा. अपनी “चार कौए “ कविता में
मैं तो अपनी खुली आँखों से देख रही हूँ,सिर्फ़ एक कौआ है,वो भी सफ़ेद जो पूरा विश्व चला रहा है, वो कहता है तो काट दिये जाते हैं हज़ारों सिर, वो जहाँ चाहे हरे भरे को बंजर बना देता है ।
सुना है बहुत गोला बारूद है उसके पास, आप से पूछती मैं? बाबा “ बाज़ ने अपनी उड़ान क्यों छोड़ी?” क्यों छोड़ा उसनें अपना आसमान,गिद्धों ने क्यों आत्मसमर्पण कर दिया कौवों के सामने।

फ़िर आप इस कहावत की दुहाई नहीं देते -“समरथ को नहीं दोष गोसाईं “

शायद आप के पास भी जवाब नहीं होता,
और मेरे पास भी नहीं है ….कि कौवे ने रंग कब बदला कैसे बदला ?
पर शायद इस सफ़ेद रंग से आप भी भली भांति परिचित हो,कितने ज़ख्म दिए हैं इस रंग ने।
पर कृतज्ञ हूँ,मैं आपकी कलम की जिसने इतना साफ़ और इतना गाढ़ा लिखा,जो मैं पढ़ पायी, नहीं तो आज पढ़ता कौन है, “मैं भी नहीं “सबकी नज़रे धुँधली पड़ चुकी हैं ।
और लेखनी ढूँढ रही अश्लील कहानियाँ,
जो बेची जा सके ।
एक कहावत है ना…जो चीज़ आसानी से मिले उसकी कद्र नहीं होती ।

मैत्रेयी त्रिपाठी

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