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एक दिन मेरे बचपन में — राजेन्द्र परिहार “सैनिक” (संस्मरण)

 

बचपन काल को यदि जीवन की परिधि से निकाल दिया जाएतो जीवन में शेष कुछ बचता ही नहीं है। इसी सुनहले बचपन की स्मृतियां ही जीवन भर याद रह जाती है।… कुछ स्मृतियां अच्छी या बुरी जीवन को इस तरह प्रभावित करती है कि उन्हें भुलाना भी चाहें तो नहीं भुला सकते हम। मेरे बचपन में भी एक ऐसी ही सुन्दर घटना घटित हुई जो मुझे अब भी कभी-कभी याद हो उठती है और वो सुन्दर दृश्य साकार हो उठता है। यह आनंददायक संस्मरण आज मैं साझा करना चाहता हूं।

यह सुन्दर भावपूर्ण और घटना तब घटी जब मैं बिल्कुल अबोध वय ( दो वर्षीय) बालक रहा होऊंगा। ये बचपन का वह दौर है,जिसमें बालक चीजों को समझने का प्रयास करता है और बड़ों का अनुसरण करते हुए कुछ ऐसा कर बैठता है, जिसकी कल्पना भी हमने नहीं की होती है। मैं भी बचपन के इस दौर में बड़ों की हर एक गतिविधियों का अनुशरण कर रहा था। एक दिन ऐसे ही प्रयास में मैं बाथरूम में अंदर चला गया और कौतूहल वश दरवाजे की कुंडी भीतर से बंद कर ली और आराम से बाथरूम में भरे आधे टब पानी में आराम से बैठकर छप छपा छप खेलने में मग्न हो गया।
थोड़ी देर बाद जब मैं किसी को दिखाई नहीं दिया तो, मेरी तलाश शुरू हो गई। हर संभावित जगह खोज खबर ली गई,लेकिन किसी को भी यह कल्पना नहीं थी कि मैं बाथरूम में भी हो सकता हूं। मुझे तो कोई चिंता फ़िक्र थी ही नहीं मजे से खेल रहा था। मां, पिताजी, बड़े भाई बहन और निकटतम पड़ौसी भी मुझे यहां वहां सब जगहां ढूंढ रहे थे और सबके चेहरों पर परेशानी के भाव थे कि आखिर बालक कहां गया? ऐसे हादसे होते हैं तो कई तरह के वहम भी भूत बनकर दिमाग में शंका उत्पन्न करने लगते हैं,,हो सकता है किसी ने बच्चे को
उठा लिया हो, अपहरण कर लिया हो! अचानक किसी के दिमाग में आया कि “अरे बाथरूम चैक किया किसी ने..??अरे हां… बाथरूम तो चैक किया ही नहीं!.. सभी बाथरूम की तरफ दौड़ पड़े.. और बाथरूम से मेरी छप छपा छप की आवाज़ सुनकर एक तसल्ली तो हुई कि बच्चे को कोई हानि नहीं पहुंची है, लेकिन समस्या तब उत्पन्न हो गई जब मेरे लाख प्रयास करने पर भी कुण्डी नहीं खुल पा रही थी,,सब परेशान होकर बड़े प्यार से बोले जा रहे थे “बेटा कुण्डी खोलो,देखो तुम्हारी मां तुम्हें पुकार रही है। इतनी सारी आवाजें एक साथ सुनकर मैं और भी घबरा गया और रोने लगा। मेरी मां ने कहा कि सब चुप हो जाओ मुझे कोशिश करने दो। मां ने बड़े प्यार से पुकारा ” बेटा बाहर आ जाओ तुम्हारे लिए खिलौने लाए हैं,,तुम्हारे पापा..!! मैंने भी कोशिश की और इस बार कामयाबी भी हासिल हो गई और कुण्डी खुल गई। दरवाजा खुलते ही देखा पूरा परिवार जो कुछ देर पहले दुःख से आहत था सबके चेहरे भी पर खुशी छा गई। मां ने झट से मुझे अपने आंचल से चिपका लिया और रोए जा रही थी। सबकी आंखों से आंसू छलक रहे थे! …लेकिन यह इत्मीनान और खुशी के आंसू थे।

राजेन्द्र परिहार “सैनिक”

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