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पं० बृजभूषण राय की भूमि – बीसोखोर – कवि – अरविंद शर्मा ‘अजनबी’

 

पूरब दिशा में पीतांबर बाबा,
तेज लिए रथ से अवतार।
राजयोग की छाया जैसे,
न्याय करें निष्कलंक विचार॥

तप की ज्वाला पूजा जिनकी,
अवतारी माने सब ज्ञान।
जप-यज्ञ के तेजस्वी स्वामी,
दृष्टि बनी निर्मल अभिमान॥

जयघोष उठे जब नाम पुकारें,
ध्वनि नभ के भी पार जाए।
पूरब से तब तेज बरसता,
दुःख हर ले, शुभ दृष्टि लाए॥

पश्चिम बैठीं जलपा माई,
लाल चुनरिया छवि महान।
सौभाग्य-संतति की दाता,
ममता जिनकी अमिट पहचान॥

शंख बजे, व्रत करें नारियाँ,
दीप जले, गूँजे अरमान।
मंगल बेला में हों वंदन,
जलपा माई को प्रणाम॥

त्योहारों की रातें बोलें,
बजते घुँघरू, होवे गीत।
माँ की छवि नयन सम्हाले,
मन में श्रद्धा, नेह, प्रीत॥

उत्तर दिशा में बरम बाबा,
जहाँ शांति की वंशी बहे।
तप की गूढ़ समाधि रचें,
अंधकार भी ज्योति सहे॥

पीपल नीचे दीप जले हों,
सत्य-विवेक हो आराधन।
ना अंध-भक्ति, ना छल-छाया,
वेदों का हो नव-पठन॥

जो वेद-पुराणों का सार,
वही मूर्त हैं रूप वहाँ।
दृष्टि, धैर्य, विवेक सिखाएँ,
बरम बाबा की छाँव जहाँ॥

दक्षिण में कुंवरवर्ती माई,
मंगल-ज्योति की पावन खान।
स्त्रियाँ, बहुएँ व्रत रखें,
कहतीं उन्हें करुणा की जान॥

लाल चुनर, कर्पूर-सुगंधित,
आरती में गूंजे मंगल गान।
मुंडन हो या मंगल विधि,
माई दें आशीर्वाद महान॥

स्मरण करें उस महापुरुष को,
जिनका नाम अमर बना।
पं० बृजभूषण जिनसे भू का,
हर कोना आलोकित तना॥

चौदह गाँवों के अधिपति,
राजन सम, न्यायाधार।
गद्दी पर बैठे वह जैसे,
साक्षात धर्मराज साकार॥

धोती चूनी, केसर बंधी थी,
उर पर जनेऊ दीप्तिमान।
ऊपर कुर्ता खादी का था,
नेत्रों में दृढ़ धर्म-ज्ञान॥

माथे पर चंदन की रेखा,
कान्हा की परभा सी दीप्त।
गंगा-जल सम श्वेत वर्ण तन,
चरण कमल जैसे पवित्र॥

कंधे चौड़े, छाती चौड़ी,
भुजदंड सघन पौरुष धार।
गर्दन उन्नत, ग्रीवा उज्ज्वल,
वाणी में ओज और प्यार॥

सिर पर पगड़ी, केसरिया सी,
जैसे सूर्यास्त की लाली।
हाथों में रुद्राक्ष की माला,
कंठ धरे वाणी उज्ज्वली॥

नंगे पाँव ही गाँव फिरें वो,
धूलि उन्हें थी शीश समान।
प्रभु के दूत प्रतीत होते,
धरती पर होते भगवान॥

जब सभा में बैठें वे तो,
शांत सभा में तेज बहे।
मानो धर्मराज के सम्मुख,
स्वयं नीति का ग्रंथ कहे॥

गंभीर मुख की शोभा न्यारी,
नेह भरी मुस्कान सजे।
हँसी में मर्यादा बोले,
गर्जन से दिग्गज काँप उठे॥

न्याय रहा निष्पक्ष सदैव,
ना जाति, कुल, भेद कहीं।
जन-जन को सम्मान मिला,
हर दुःख उनका दुख वही॥

लालसा राय पिता थे जिनके,
कुल गौरव, तेज अपार।
बल, बुद्धि, तप के धनी,
जन-जन में थे पूज्य-धार॥

राजनीति के गूढ़ विचारक,
ग्रामों के संचालक थे।
गऊ-सेवा, व्रत और तीर्थ,
वेदों के साक्षात उदाहरण थे॥

बसाया ग्राम बीसोखोर जहाँ,
माटी तक बोले आज।
हल चला, घर जब बने तब,
धरती ने ली नूतन साज॥

हर जाति का घर बसा है,
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, दलित।
हर आँगन से दीप जले,
हरि स्मृति से हो उत्सव विकसित॥

एक घर मुस्लिम भाई का,
सबने उसको मान दिया।
ना द्वेष, न कोई भेद रहा,
सबने हृदय से गले लिया॥

ईद में बाँटी सेवइयाँ ,
दीपों से दीवाली चमकी।
गंगा-जमुनी रीति बही,
प्रेम-सुधा हर छोर थिरकती॥

फूलही खोच, रैकड़ वन गहरा,
नारायणी की धार सुहानी।
गंडक नहरें हरियाली दें,
धरा बने श्रृंगार की वाणी॥

विद्यालय और डिग्री कॉलेज,
शिक्षा का यशस्वी द्वार।
जहाँ कभी हल चला था,
अब कलम करे नव सृजन प्रचार॥

मटर, धान, गेहूँ, गन्ना,
सरसों, चना, आलू-फल।
अन्नपूर्णा मुस्काए प्रतिदिन,
हर खेतों में उगता हल॥

बसूली डाकबंगला बोले,
गाथा बीते युगों की।
साहब, संत, फकीर बसे,
साक्षी बनी वह पगडंडी॥

तीन किलो पर रेल स्टेशन है,
पेट्रोल पंप पास खड़ा।
हाईवे कहे , ग्राम नहीं यह,
ध्रुव-तारा-सा सत्य बड़ा॥

हम वंशज उनके जिनसे,
पावन हुई यह पुण्य धरा।
जिनके रक्त-सिंचन से उपजी,
धर्म-पराक्रम की धरा॥

नमन उन्हें जो बीज बो गए,
हम फल हैं उन वृक्षों के।
गौरव करें इस वंश-वेला,
पाँव पड़ें नमित नयन से॥

कवि – अरविंद शर्मा ‘अजनबी’
स्थान – बीसोखोर, कटाहरी बाजार

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