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राष्ट्र की सुरक्षा: सेना, शासन-प्रशासन और समाज का समन्वय दीपक शर्मा, शिक्षाविद् एवं अधिवक्ता

 

राष्ट्र की सुरक्षा केवल सीमाओं पर तैनात वीर सैनिकों की बहादुरी तक सीमित नहीं है। यह एक व्यापक अवधारणा है, जिसमें सेना, शासन-प्रशासन और समाज तीनों की संयुक्त भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। जब तक इन तीनों स्तंभों के बीच समन्वय और सहयोग नहीं होगा, तब तक संपूर्ण सुरक्षा की कल्पना अधूरी रहेगी।
सेना: राष्ट्र की पहली रेखा है । सेना राष्ट्र की सीमाओं की सुरक्षा करती है और किसी भी बाहरी आक्रमण या संकट के समय देश की संप्रभुता की रक्षा में सबसे आगे खड़ी होती है। यह हमारी पहली रक्षात्मक दीवार है। किंतु सेना को न केवल अत्याधुनिक हथियारों और संसाधनों की आवश्यकता होती है, बल्कि नैतिक समर्थन और सामाजिक मान-सम्मान भी चाहिए। सैनिकों का मनोबल तभी ऊँचा रहता है, जब उन्हें यह विश्वास होता है कि उनका देश उनके साथ खड़ा है। शासन एवं प्रशासन: नीतियों और संसाधनों का संरक्षक है । सरकार और प्रशासनिक तंत्र सेना को आवश्यक संसाधन, प्रशिक्षण, योजनाएं और कूटनीतिक सहयोग प्रदान करते हैं। यदि नीति-निर्माता राष्ट्रीय सुरक्षा को प्राथमिकता देते हैं, तो देश की सुरक्षा मजबूत होती है। सेना के सशक्तिकरण हेतु रक्षा बजट का सही नियोजन, आपदा प्रबंधन नीति, साइबर सुरक्षा, आंतरिक खुफिया व्यवस्था, और सीमावर्ती क्षेत्रों में आधारभूत ढाँचे का विकास प्रशासन की जिम्मेदारी है। साथ ही, आपदा की स्थिति में सेना और सिविल प्रशासन का तालमेल बेहद आवश्यक होता है — जैसे कि भूकंप, बाढ़, महामारी या आतंकी हमलों की स्थिति में।
-कोई भी राष्ट्र तभी सुरक्षित रह सकता है जब उसके नागरिक जागरूक, जिम्मेदार और संवेदनशील हों। समाज में यदि असंतोष, अफवाह, सामाजिक विद्वेष या राष्ट्रविरोधी तत्वों का प्रसार हो, तो आंतरिक सुरक्षा खतरे में पड़ जाती है। अतः समाज का कर्तव्य है कि वह राष्ट्रहित में कार्य करे, सेना और प्रशासन के प्रयासों का समर्थन करे और राष्ट्र की एकता-अखंडता बनाए रखने में सहयोग दे आज के समय में सोशल मीडिया के माध्यम से गलत सूचनाएं बहुत तेजी से फैलती हैं। ऐसे में समाज को सच्चाई पर आधारित विचार साझा करने और अफवाहों से बचने की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। त्रिस्तरीय सहयोग का महत्व अत्यंत आवश्यक है। जब सेना, शासन और समाज मिलकर एक दिशा में काम करते हैं, तो राष्ट्र की सुरक्षा एक अभेद्य कवच बन जाती है। उदाहरण के लिए: 1965 और 1971 एवं कारगिल के युद्धों में भारत की जीत में न केवल सेना बल्कि जनमानस और सरकार की एकजुटता ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। जैसे कोविड-19 महामारी के दौरान सेना ने चिकित्सा व्यवस्था और आपातकालीन सेवाओं में मदद की, जबकि प्रशासन और समाज ने भी सहयोग कर एकजुटता का परिचय दिया। एक शिक्षाविद् और अधिवक्ता होने के नाते मेरा मानना है कि राष्ट्र सुरक्षा के प्रति जन-जागरूकता का बीजारोपण विद्यालयों और विश्वविद्यालयों से होना चाहिए। नागरिक शास्त्र, संविधान और राष्ट्रीय कर्तव्यों की समझ विद्यार्थियों को दी जानी चाहिए। साथ ही, विधिक तंत्र को भी राष्ट्र विरोधी गतिविधियों पर सख्ती से अंकुश लगाना चाहिए। राष्ट्र की सुरक्षा केवल सीमा पर लड़ने का नाम नहीं, बल्कि संपूर्ण राष्ट्र को सुरक्षित रखना है।
राष्ट्र सर्वोपरि है, और उसकी रक्षा हम सभी की जिम्मेदारी है।

— दीपक शर्मा
शिक्षाविद् एवं
अधिवक्ता (राजस्थान उच्च न्यायालय जयपुर)

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