संस्मरण:- वो कच्चे आंगन — रमेश शर्मा

आज बैठ कर सोचता हूँ तो मुझे अपने बचपन के दिन याद आ जाते हैं। बात उन दिनों की है जब मैं छठी कक्षा में पढ़ता था।
परीक्षा हुई । परीक्षा परिणाम अच्छा आया। मैं प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुआ। उस समय प्रथम श्रेणी से पास होना बड़ी बात होती थी।
हम सब भाईबहन माता जी के साथ गर्मी की छुट्टियों में अपने गाँव दीवाहमीदपुर आ गए। हमारे घर में कच्चा आंगन था। आंगन में एक नीम का बड़ा पेड़ था। सुबह छाछ राबड़ी पीकर हम सभी भाई बहनों का दल खेत पर चला जाता था। वहाँ ट्यूबवेल था पानी का बड़ा चौकोर कुंड था। वहां नीम आम अमरुद जामुन के पेड़ थे। वहाँ खेलते, धमाचौकड़ी करते, और उस पानी के कुंड में नहाते थे।
कच्ची आम की कैरी तोड़कर घर लाते और आंगन में बिल बटने पर नमक मिर्च मिला कर चटनी बनाते और छाछ के साथ भरपेट रोटी खाकर। आंगन में नीम के पेड़ के नीचे सो जाते थे।
न कोई पढ़ाई का तनाव और ना मोबाइल ना टीवी, का कोई साधन था। बिजली रात को आठ घंटे आती थी। दिन भर पेड़ की छांव में ही खेलते रहते थे। ना गर्मी लगती थी। बड़ा आनंद आता था।
वह हमारे जीवन का स्वर्ण युग था। आजकल के बच्चों को देखकर बड़ा दुख होता है। पढ़ाई का बोझ और हमेशा टीवी या मोबाइल पकड़े रहना। आंखें कमजोर नजर का चश्मा लगाये पतले दुबले, खाने में जिद करने वाले बच्चों को देख कर लगता है इन्होंने अपना बचपन तो जिया ही नहीं।
रमेश शर्मा