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लघुकथा – मुक्ति- सुरेशचन्द्र जोशी,

 

रोमा चक्रवर्ती, हाँ यही तो नाम था उसका। आसपास खड़े लोग कह रहे थे, चलो अच्छा हुआ मुक्ति मिली बेचारी को। लगभग 20 वर्षों से यातना भरा जीवन जी रही थी।
पति की मृत्यु के बाद ससुराल वाले उसे वृन्दावन छोड़ गए थे, देखना तो दूर कभी यह जानने की भी कोशिश नहीं की, कि वह जिंदा है या मर चुकी है।
वृन्दावन आने के बाद क्या क्या नहीं सहा उसने। एक सीलन भरे छोटे से बदबूदार कमरे में गुजर बसर, सुबह से लेकर देर रात तक केवल काम काम और काम। मंदिरों के आगे खड़े होकर मिली भीख, भजन गाने से मिले पैसों के अतिरिक्त आश्रम के झाड़ू पोंछे से किसी तरह कमरे का किराया चुका पाती थी। जाड़ा गर्मी और वर्षात में गुजारा करने को मात्र एक मोटी सफेद धोती, और पेट भरने को कभी इस मंदिर कभी उस मंदिर का प्रसाद। लगभग रोज ही या तो भूखे पेट या आधे अधूरे पेट ही सोया करती थी।
जब तक शरीर में शक्ति थी तब तब तक किसी तरह जीवन चलता रहा। धीरे धीरे भूख, थकान,अभावग्रस्त जीवन के कारण शरीर को बीमारियों ने घेर लिया। लेकिन फिर भी जब तक जीवन था तो उसे ढोने के लिए काम तो करना ही था। खाने को भोजन तो मिलता नहीं था तो दवा की कौन कहे।
आखिर एक दिन वह बिस्तर में पड़ गई तो उठ नहीं पाई। बिस्तर में आते ही जीवन एकदम नरक की भांति हो गया। कभी कभी उसके साथ की उस जैसी महिलाएं कुछ खाने को दे देती थीं। वो भी मदद करती तो कैसे उनका हाल भी तो रोमा की ही तरह था।
अंततः 20 वर्षों के यातना भरे जीवन से आज उसे मुक्ति मिल गई, जिसकी वह कतई हकदार नहीं थी।

सुरेशचन्द्र जोशी, उत्तराखंड, पिथौरागढ़।

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