मेरे गुजरात संस्मरण शीर्षक : वृद्ध पंडित जी लेखक : राजेश कुमार ‘राज’

यह यात्रा वृतांत वर्ष १९८६ ईस्वी का है. मैं उस समय गुजरात के सौराष्ट्र अंचल के जूनागढ़ शहर में पदस्थ था. जूनागढ़ जिला क्षेत्रफल के हिसाब से काफी बड़ा है. उस समय शायद दस तालुका इस जिले के अन्दर थे जिनमें से जूनागढ़, वेरावल, केशोद मांगरोल और विसवादार प्रमुख तालुका थे. आज की क्या स्थिति है इसका मुझे ज्ञान नहीं है. एशियाई शेरों/सिंह का घर कहा जाने वाला गिर राष्ट्रीय उद्यान और वन्यजीव अभ्यारण्य, जिसे सासन गिर नाम से भी जाना जाता हैं, जूनागढ़ जिले में ही स्थित है. गुजरात राज्य के सौराष्ट्र में स्थान-स्थान पर धार्मिक स्थल पाए जाते हैं. बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक इतिहास प्रसिद्ध सोमनाथ महादेव का मंदिर भी वेरावल के निकट स्थित है. कुल मिलाकर जूनागढ़ जिला भी अपनी कठियावाड़ी अस्मिता, धार्मिक और सांस्कृतिक परम्पराओं से समृद्ध है.
अपनी जूनागढ़ पोस्टिंग के दौरान मैं जूनागढ़ शहर की अम्बिका नगर सोसाइटी में सुभाष भाई जोशी के मकान में बतौर किरायेदार रहता था. सुभाष भाई का छोटा सा परिवार था जिसमे वह स्वयं, उनकी धर्मपत्नी उषा बेन जोशी तथा उनके दो बेटे, जिनमें से बड़े बेटे का नाम हिरेन था, शामिल थे. बहुत ही मिलनसार स्वाभाव का परिवार था. उनके मकान में रहते हुए मुझे कभी भी अपने परिवार की कमी महसूस नहीं हुई. इसी सोसाइटी में कस्टम निरीक्षक और मेरे बड़े भाई सामान पी. आर. रावत भी रहते थे. उनसे मेरी काफी घनिष्ठता थी. मैं खाना खाने के लिए जूनागढ़ की तम्बोली खड़की नामक मोहल्ले में जाता था. उसी स्थान पर खाना खाने जाते-आते मेरी पहचान एक वृद्ध पंडित जी से हुई जिनका नाम शायद, अगर मेरी याददाश्त ठीक है तो, लाभशंकर दवे था. वह पंडित जी गुजरात राज्य सड़क परिवहन निगम, जिसे गुजराती लोग संक्षेप में एस. टी. कहते हैं, से सेवानिवृत्त ड्राईवर थे. पंडित जी को ज्योतिष का ज्ञान भी था. परन्तु उन्होंने उसको अपना व्यवसाय नहीं बनाया था. वह शौंकिया तौर पर कुंडली देख और बना दिया करते थे. मैं कई लोगों को जानता हूँ जो उनके शिष्य या यूँ कहें उनका बड़ा आदर करते थे. ऐसे लोगों में एक थे स्थानीय वैभव होटल के मालिक. पंडित जी ने मेरी भी कुंडली बनायीं थी. उस समय मेरी कुंडली में उन्होंने इतने सारे रोगों की भविष्यवाणी कर दी थी कि मुझे उनके ज्योतिष ज्ञान पर कुछ शंका होने लगी थी. लेकिन आज जब देखता हूँ तो मैं अधिकांशतः उन सभी रोगों से ग्रस्त हूँ जिनकी उन्होंने आगाही की थी.
खैर पंडित जी ऊपर से तो ठीक-ठाक ही लगते थे लेकिन अचानक ही वह बहुत बीमार पड़ गए. पता चला कि उन्हें भूतकाल में टी. बी. हुआ था और अब उसी बीमारी ने दोबारा सिर उठा लिया था. यहाँ मैं यह बताता चलूँ कि पंडित जी का कोई परिवार नहीं था. फक्कड़ किस्म के इंसान थे. थोड़े-थोड़े अंतराल के लिए जानने वालों के घरों में रह कर गुजारा कर लेते थे. जैसे ही सबको पता चला कि पंडित जी को तपेदिक हो गया है सभी ने उनके लिए अपने घरों के दरवाजे बंद कर दिए. पंडित जी पेंशनधारी थे. वह समय-समय पर जानने वाले लोगों की मदद भी कर देते थे. उन्होंने मुझे मिलने के लिए बुलाया. उस समय वह शहर की एक फोटो स्टूडियो में रह रहे थे. हालत बहुत ख़राब थी. स्टूडियो वाला भी उनको लम्बे समय तक अपने कार्यस्थल पर नहीं रख सकता था. पंडित जी ने मुझसे निवेदन किया कि मैं उनको अपने साथ रख लूं. मैं उनके प्रति सम्मान और स्नेह का भाव रखता था. अतः सब कुछ जानते हुए भी मैं उनको अपने किराये के मकान में ले आया. मेरे मकान मालिक भी बहुत सहृदय व्यक्ति थे. उन्हें भी एक बूढ़े ब्राह्मण का उनके घर में रहना नहीं अखरा. लेकिन एक दिन सब कहानी ख़राब हो गयी. पंडित जी नहाकर बाथरूम से बहार आ रहे थे. अचानक से उन्हें उल्टी हो गयी जिसमे उन्हें काफी मात्रा में पीला-पीला और बदबूदार बलगम निकला. दुर्योगवश मेरे मकान मालिक सुभाष भाई जोशी ने यह सब देख लिया. उन्हें यह जानने में समय नहीं लगा कि पंडित जी तपेदिक से पीड़ित थे. अब उन्होंने मुझे अल्टीमेटम दे दिया कि पंडित जी को तुरंत किसी दूसरी जगह पर स्थानान्तरित करिए. मैं भी बाहरी आदमी था. किसी स्थानीय को जनता नहीं था. दुखी मन से मैंने पंडित जी को सारी हकीकत बताई. वो समझ गए और उन्होंने मेरा घर छोड़ दिया. उनके जाने का मुझे बड़ा दुःख हुआ. बाद में उन्होंने मेरे पास सूचना भिजवाई कि वह वैभव होटल के एक रूम में ठहरे हैं. मैं उन्हें देखने के लिए वैभव होटल भी गया. समय निकलता गया और वर्ष १९८७ ईस्वी में मेरा तबादला मांडवी-कच्छ में हो गया. मांडवी जाकर मैंने अपना कार्यभार संभाल लिया लेकिन मन में पंडित जी की चिंता बराबर बनी रही. वर्ष १९८७ के जुलाई माह में मैं जूनागढ़ गया जहाँ पर मैंने अपनी स्वर्गवासी धर्मपत्नी वंदना देवी से विवाह किया. उसी दौरान मुझे पता चला कि पंडित जी ने शहर के सरकारी अस्पताल में दम तोड़ दिया.
इस संस्मरण को कलमबद्ध करने का कारण यह बताना है कि मुसीबत में मनुष्य का साया भी साथ छोड़ देता है. अंत समय में जैसा भी हो अपना परिवार और अपनी संतान ही काम लगते है. भले ही आपके परिजन आपको चार बात सुना लें लेकिन मुश्किल घड़ी में आपको दरबदर की ठोकरें खाने के लिए शायद ही छोड़ें. अपनों का हाथ और अपनों का साथ कभी मत छोडिये.
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