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जब एक सशक्त महिला को ही अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़े … नीलम सोनी की कलम से

 

एक सफल महिला उद्यमी की कहानी आज मेरे अंतर्मन को झकझोर गई। यह केवल एक व्यक्तिगत संघर्ष नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम के खोखलेपन की पोल खोलती सच्चाई है। यह सवाल उठाती है कि क्या “महिला सशक्तिकरण” अब केवल भाषणों और किताबों में सिमटकर रह गया है?

*सशक्तिकरण के पोस्टर से हकीकत की दरारों तक*
हम बात कर रहे हैं एक ऐसी महिला की, जिसने रूढ़िवादी सामाजिक ढांचे से बाहर निकलकर अपना नाम बनाया। वह एक ऐसे परिवेश से आई, जहां महिलाओं को घर की चारदीवारी लांघने तक की अनुमति नहीं होती थी। लेकिन उसने न केवल खुद को व्यापार में स्थापित किया, बल्कि एक नहीं चार दुकानें खोलकर अन्य महिलाओं के लिए रोज़गार और आत्मनिर्भरता की मिसाल पेश की। उसके लिए काम करने वाले कर्मचारी सिर्फ स्टाफ नहीं, उसका परिवार हैं। ज़रूरतमंद युवतियों को नौकरी देकर उसने कितनों के घरों में चूल्हा जलाया। लेकिन उसकी कहानी यहीं खत्म नहीं होती…

*व्यवसाय के साथ करुणा की पराकाष्ठा*

जहां लोग आवारा जानवरों से कतराते हैं, वहीं यह महिला स्ट्रीट डॉग्स के लिए मसीहा बन गई। घायल और बीमार जानवरों का इलाज अपने खर्चे पर कराना, खुद उन्हें अस्पताल ले जाना, उनके फटे शरीर पर मरहम लगाना — ये सब उसके लिए कोई सामाजिक दिखावा नहीं बल्कि आत्मिक सेवा है।
38 साल की उम्र में, जब लोग अभी दिशा खोजते हैं, वह जीवन के हर क्षेत्र में निपुणता हासिल कर चुकी थी — व्यवसाय, सेवा, प्रबंधन, ड्राइविंग, बैंकिंग, भक्ति और करुणा।

*…और फिर एक दिन सब कुछ बदल गया*

परिजनों ने अचानक कह दिया — “वह मानसिक रूप से बीमार है।” उसकी दिनचर्या में न कोई विचलन, न ही व्यवहार में कोई असामान्यता। फिर भी, उसे जबरन राजस्थान नहीं बल्कि गुजरात के एक अस्पताल में भर्ती करवा दिया गया, वह भी तब जब वह मंदिर में पूजा कर रही थी। न कोई मेडिकल प्रमाण, न कोई आपात स्थिति — बस एक निर्णय, जो शायद उसके आत्मनिर्भर और मुखर स्वभाव से डरा हुआ था।

*जब सिस्टम मूकदर्शक बन जाए…*

सबसे दुखद पहलू यह है कि इस महिला द्वारा दी गई सुरक्षा की रिपोर्ट पर आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई। एक सक्षम, करुणामयी महिला जब न्याय की गुहार लगाती है और पूरा सिस्टम—पुलिस, प्रशासन, महिला सेल, जनप्रतिनिधि, समाजसेवी संस्थाएं—एक सुर में चुप्पी साध लेता है, तो यह सत्ता के स्त्री विरोधी चरित्र को उजागर करता है।

*क्या यही है नारी सशक्तिकरण?*

आज के दौर में जब नारी सशक्तिकरण की दुहाई हर मंच पर दी जाती है, ऐसे में जब एक महिला को अपने ही अस्तित्व की लड़ाई अकेले लड़नी पड़ती है, तो यह सोचने को मजबूर करता है कि क्या ये सारे अभियान, रैलियाँ, योजनाएँ सिर्फ दिखावा हैं?
क्या एक महिला का मुखर, स्वतंत्र और आत्मनिर्भर होना आज भी समाज को हजम नहीं होता?

*अब जरूरी है…*

इस महिला की आवाज़ बनना,
सिस्टम से जवाब माँगना और मानवता के नाम पर खामोश न रह जाना। यह कहानी सिर्फ एक महिला की नहीं, उन हजारों आवाज़ों की है जिन्हें चुप करा दिया गया, उन सपनों की जो सिस्टम की बेरुखी में दम तोड़ते हैं, और उन बेटियों की जो हर दिन अपनी पहचान के लिए जूझ रही हैं
नीलम सोनी फॉर्म ब्यावर राजस्थान

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