Uncategorized

जीवन जीने की कला – शिखा खुराना ‘कुमुदिनी’

 

जीवन केवल साँसों की आवाजाही नहीं है। यह एक सुंदर अवसर है ,स्वयं को समझने, महसूस करने, और उस आनंद को पाने का जो हमारे भीतर सदैव से मौजूद है, बस दबा रह जाता है ज़िम्मेदारियों और उलझनों की परतों के नीचे।
आज की तेज़ रफ्तार दुनिया में हम सब कहीं न कहीं व्यस्तता को ही सफलता का पर्याय मान बैठे हैं। सुबह से लेकर रात तक की भागदौड़ में हम सिर्फ काम करते हैं, दूसरों के लिए, परिवार के लिए, करियर के लिए ,लेकिन खुद के लिए कब जीते हैं, ये सवाल अक्सर अनुत्तरित रह जाता है।

यही वह बिंदु है जहाँ से जीवन मूल्यों की पुनर्परिभाषा शुरू होती है। जीवन का अर्थ केवल अर्जन और उत्तरदायित्व नहीं, बल्कि संतुलन और आत्मिक संतोष भी है।

जब हम अपने मन के छोटे-छोटे सुखों की कद्र करना शुरू करते हैं — तब जीवन खिलने लगता है।
कभी-कभी किसी पुराने पसंदीदा गीत को सुनना ही किसी थकी आत्मा के लिए सबसे बड़ी राहत बन जाता है। संगीत केवल मनोरंजन नहीं, आत्मा की संजीवनी है। वह थमे हुए एहसासों को शब्द और स्वर देता है। उसी तरह नाचना चाहे अकेले कमरे में ही क्यों न हो, हमें जीवन की लय से दोबारा जोड़ता है। यह किसी एक विधा का प्रदर्शन नहीं, बल्कि उस ऊर्जा का प्रकटन है जो हमारे भीतर संचित होती है, बस बाहर आने का अवसर खोजती है।

मनपसंद खेल खेलना, चाहे बैडमिंटन हो, शतरंज हो या सिर्फ बच्चों संग दौड़ना ही क्यों न हो, हमें वर्तमान क्षण में जीवित रखता है। यह हमें याद दिलाता है कि ज़िंदगी में हँसी-मज़ाक और खेल का भी उतना ही महत्व है जितना योजना और अनुशासन का।
पुस्तकों से रिश्ता बनाना, कुछ नया पढ़ना, खुद से संवाद जैसा होता है। एक अच्छी किताब केवल ज्ञान नहीं देती, वह जीवन-दृष्टि भी बदल देती है।
कभी-कभी दोस्तों से मिलना, बेपरवाह हँसना, बीते समय को याद करना — ये सभी क्षण आत्मा को वो सुकून देते हैं जो दवा और निदान नहीं दे सकते। ये वो रिश्ते हैं जो हमें हर हाल में थामे रहते हैं, बशर्ते हम उन्हें समय देना न भूलें।
जीवन में परिवार के साथ बिताए पल भी अमूल्य हैं। बच्चों के साथ पार्क जाना, माता-पिता संग किसी धार्मिक स्थल की यात्रा, या सिर्फ साथ बैठकर खाना खाना ये क्षण रिश्तों में मिठास घोलते हैं और परिवार को एक आत्मिक बंधन में बाँधते हैं। हम अक्सर सुनते थे, व्यस्त रहो, तभी सफल हो। लेकिन सच्चाई ये है कि,संतुलित रहो, तभी पूर्ण हो।
अगर हम हर दिन खुद को थोड़ा समय दें, अपने मन के गीत गाएं,थोड़ा नाच लें,थोड़ा हँस लें,थोड़ा लिखें या पढ़ें,‌ थोड़ा चलें या दौड़ें, तो धीरे-धीरे हमारी आत्मा पर जमी धूल हटने लगती है और जीवन अपने मूल स्वरूप में प्रकट होने लगता है।
जीवन मूल्य केवल आदर्श नहीं हैं, वे हमारे जीने की शैली हैं,जो तय करते हैं कि हम जीवन को सिर्फ भोग रहे हैं,या वास्तव में जी रहे हैं।
इसलिए,यदि जीवन की दौड़ ने आपको थका दिया है, तो एक बार ठहरिए,गहरी साँस लीजिए,और पूछिए, मैं आखिरी बार कब खुलकर मुस्कराया था

यदि उत्तर नहीं पता ,तो जान लीजिए, अब वो समय आ गया है,जब जीवन को फिर से संवारने की आवश्यकता है। अपने भीतर की रोशनी को बाहर लाने का अपने जीवन मूल्यों को पुनः अपनाने का।
क्योंकि,जीवन तभी सुंदर बनता है, जब हम उसे सिर्फ काटते नहीं, जीते हैं।
और जीने की शुरुआत अपने आप से प्रेम करने से होती है।

शिखा खुराना ‘कुमुदिनी’

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
error: Content is protected !!