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वो बचपन के दोस्त – रमेश शर्मा

 

आज भी बचपन के दिन याद आते हैं तो मन ही मन मुस्कुरा लेता हूँ।
सन 1973 में मैं पांचवी कक्षा में पढ़ता था। उस समय घरों में टेलीफोन भी बड़ी मुश्किल से हुआ करते थे। हम सुबह स्कूल चले जाते। पढ़ाई का कोई तनाव नहीं होता था। स्कूल से आते । खाना पीना कर स्कूल में विभिन्न विषयों में दिया गया गृह कार्य करते और अपने आसपास के मित्रों के साथ घंटों खेलते थे। उस समय खेल के नाम पर सितोलिया,कंचे ,गुल्ली डंडा यही खेल हुआ करते थे। और हम शाम सात बजे तक खेलते रहते।
जब लगता कि अब पिताजी आने वाले हैं और घर पर नहीं मिले तो मार पड़ेगी तब बचते बचाते चुपचाप दबे पाँव घर में घुसते थे। पिता जी छ:बजे आफिस से आकर खाना खा कर टहलने निकल जाते थे। तब हम घर में घुसते थे। फटाफट खाना खा कर थोड़ी देर किताबों को उलट पलट करते। कल के लिए अपना बैग जमाते और सो जाते थे।
एक दिन में स्कूल से अपने दोस्तों के साथ वापस घर आ रहा था। रास्ते में एक मकान में अमरूद का एक पेड़ था हम आते जाते उस पर लगे अमरूद को देखते और खाने के लिए ललचायें थे। उस दिन मैंने देखा दोपहर का समय था सब सोये हुए थे। मैं और मेरा दोस्त दीपक दोनों ने मिलकर सोचा कि आज अमरूद अवश्य खायेंगे। अमरूद का पेड़ मकान के अंदर दीवार से सटा हुआ था। उसकी डालियाँ बाहर आ रही थीं उनपर अमरूद पके हुए लगे थे। मैं दीपक की पीठ पर चढ़कर अमरूद तोड़ने लगा। इतनी देर में अंदर से आहट हुई। मैं नीचे सड़क पर गिर गया और हम दोनों वहाँ से भागे। मेरा घुटना छिल गया।
घर पर माताजी ने पूछा ये कैसे लग गई। तो मैंने झूठ बोला स्कूल में खेलते हुए लग गई। लेकिन वो चोट हमेशा याद रही।

रमेश शर्मा

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