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साहित्य में शुचिता के लिए आह्वान चोरों से सावधान: रत्नमणि तिवारी का विचारोत्तेजक लेख

 

हम भी दरिया हैं, हमें अपना हुनर मालूम है।
जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे, रास्ता हो जाएगा।
– “वसीर बद्र”

हाँ, यह सच है! बदलाव एकदम से नहीं होते, किंतु यदि प्रयत्न किया जाए तो रास्ता बनता जाता है। और यदि पहले से ही हार मान ली जाए तो जहां जीत की संभावना भी है, वहां भी हार हो जाती है। यदि आप किसी अच्छे बदलाव के लिए निकले हैं तो यकीं मानिए कि संघर्ष तो होगा लेकिन अंतिम जीत भी आपकी ही होगी।

अभी एक महीने से चल रही कविता चोरों के खिलाफ मुहिम में यदि सक्रिय भूमिका थी तो उसमें केवल पाँच लोग ही शामिल थे। उनकी शक्ति, सामर्थ्य, सजगता को देखकर कुछ लोगों को यह भी लगा कि इनमें क्षमता तो है, किंतु साहित्य चोरों की इतनी बड़ी लॉबी के सामने इन पांच का टिकना मुश्किल है।

वहीं, पूर्व से साहित्य शुचिता को लेकर चिंतातुर वरिष्ठजनों ने इन्हें ‘पाँच पांडव’ नाम देकर इनका हौंसला बढ़ाया। यज्ञ में आहुति की शुरुआत हुई तो धीरे-धीरे काव्य पीड़ितों का जुड़ना शुरू हुआ। अभी तक करीब डेढ़ सौ से ज्यादा लोगों ने इस पावन यज्ञ में अपनी सृजनात्मक क्षमता के अनुसार रचना करके इस पावन यज्ञ को सामग्री समर्पित की।

यज्ञ में अग्नि रूपी रचनाओं से चोरों के प्रति क्रोध की धधक उठी तो यह सक्रियता पांच से पांच सौ तक जा बढ़ी!
अब बात निकली थी, तो उसे दूर तलक तो जाना ही था—
सो गई भी।

फिर शुरू हुआ मिसाइल के बदले एंटी-मिसाइल लेख, यानी कि कौरव पक्ष (जो साहित्य चोर हैं) का सुपर सोनिक दिमाग एक्टिव हो गया। लेख के बदले एंटी-लेख आने लगे। व्यंग्य के बदले व्यंग्य बाणों की बौछार होने लगी।

_किसी ने सफाई दी— उसने चोरी नहीं की, सिर्फ संचालन के दौरान पढ़ी है।
_किसी ने कहा— इस टीम ने जो वीडियो डाले हैं, उनमें नाम तो लिया था, लेकिन द्वेषपूर्ण तरीके से कट करके वीडियो वायरल किया गया है।
_किसी ने रामायण काल की लंका-दहन की घटना का जिक्र करके लोकमत की दुहाई दी।
_तो किसी ने कटाक्ष करते हुए फल-फ्रूट पर कविता सुनाई।
_किसी ने मौलिक कवियों के प्रदर्शन पर उंगली उठाई।
_तो किसी ने लंबे-चौड़े भाषण लिखकर नदी बहाई।

“लेकिन उनमें से किसी एक भी साहसी कवि/कवयित्री ने यह नहीं कहा कि हां, साहित्य चोरी होती है। मंचों पर नोक-झोंक से विद्वत श्रोतागण निराश होते हैं। द्विअर्थी बातों से हुल्लड़बाजों को ताली बजाने पर मजबूर किया जाता है और अखबार में बताया जाता है कि फलां पंक्तियों पर जनता द्वारा खूब तालियां बजीं।”

अब मुहिम से जो सैकड़ों लोग जुड़े हैं या जुड़ रहे हैं, उन्हें भी इन चोरों द्वारा मोबाइल से कॉल करके रोकने का प्रयास किया गया। कुछेक को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष धमकी भी मिली।

इस पर भी जब मुहिम के सदस्य नहीं डरे, तो फिर कुछ फर्जी आईडी का सहारा लेकर मुहिम से जुड़े लोगों के मैसेंजर में जाकर ब्रेनवॉश करने का काम किया गया।

इधर मुहिम के सदस्यों ने सतर्क होकर अपने काम से काम रखा। उनका काम बस इतना था कि साहित्य को लेकर आम जनमानस जागृत हो।

“”साहित्य चोरों को मंच न मिलें। मंचीय संचालन से लेकर कवियों तक कोई द्विअर्थी संवाद न हो, फूहड़ मनोरंजन न किया जाए, ताकि सम्मानित श्रोताओं को लज्जा महसूस न हो। उन्हें सरकार द्वारा पुरस्कार मिलने से रोका जाए। मंचीय लोगों की रचनाओं की समीक्षा हो, जनता उनसे उनके सुनाए का अर्थ पूछे, कि वे तरन्नुम की आड़ में अर्थ का अनर्थ तो नहीं कर रहे। तुकबंदी और पैरोडी सुनाने वालों को ठीक वैसे ही बुलाया जाए, जैसे छंदकार, गीतकार, गज़लकार को बुलाया जाता है। तो पैरोडी वालों को पैरोडीकार क्यों नहीं? तुकबंदीकार क्यों नहीं?

जिसने रचना सृजन में शिल्प और भाव पर मानसिक श्रम ही नहीं किया, वह कवि की उपाधि से विभूषित क्यों? क्या इतना सरल होता है कवि होना ?कि कोई भी चार पंक्तियां जोड़-तोड़ के ले आए और मंच पर बोले कि वह कवि है?

इससे तो उन कवियों का अपमान है, जो दिन-रात खुद को तपाकर, ब्रह्मांडीय तरंगों के प्रभाव में आकर कल्पना के स्रोत बहाते हैं। अनुभव की तपस्या में तपकर बीज बनाते हैं, शिल्प रचना का तन गढ़ती है और शब्दों का संयोजन उसके अंदर की क्षुधा मिटाकर रचना को गति प्रदान करते हैं। समर्पित भाव उसमें जान डालता है। फिर प्रसव समान वेदना सहकर रचनाकार रचना को जन्म देते हैं।

इस क्रियान्वयन के बाद यह रचना श्रोता तक पहुंचती है, तो वह उसे इसी तपस्या के फल अनुभूति कराती है। इस प्रक्रिया से रची रचनाएं मंत्र समान ऊर्जा प्रवाहित करती हैं, जिससे श्रोता गणों के जीवन पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

अब जो साहित्य चोरी करके सुनाया जाएगा, चरबा करके सुनाया जाएगा, इधर-उधर की पंक्तियां जोड़कर फिर उसे नया रूप देकर सुनाया जाएगा, तो श्रोतागणों पर इसका क्या ही प्रभाव पड़ेगा।तो यह ठीक उस प्रकार होगा कि आपके बच्चे की प्लास्टिक सर्जरी कराकर कोई और ले जाए, फिर उसे अपना बच्चा बताए और उससे भरपूर काम निकाले। लेकिन डीएनए तो नहीं बदल सकता न।

बस इसी डीएनए से कविता की चोरी पकड़ ली जाती है कि इसका असल पिता कौन है? और इन्हीं साहित्य चोरों के खिलाफ यह मुहिम है। यहाँ सकारात्मक बदलाव चाहने वाले कम हैं और बदलाव न चाहने वाले ज्यादा। तो समझ लीजिए कौन कौरव और कौन पांडव?

द्वापर की लड़ाई थी— “कौरव कहते थे, एक इंच भूमि नहीं देंगे।”
और यह लड़ाई है— “कौरव कहते हैं, मंच पर शुचिता नहीं देंगे।” चाहें बाद में शुचिता को म्यूज़ियम में सजाना पड़े और उसके लिए पर्यटकों, कविता प्रेमियों से टिकट वसूलना पड़े।

क्योंकि पिछले दशक से प्रसिद्धि के मामले में शीर्ष पर विराजे एक किशोर (सिर्फ नाम से) का कहना है,
“तुम सबसे ज्यादा इस धंधे की समझ मुझको है।”

यूं तो कविता धंधा या व्यवसाय नहीं ,पर इसे व्यवसाय मान भी लें तो क्या व्यवसाय में चोरी को अनुचित नहीं माना जाता?कविता चोरी बौद्धिक संपदा की चोरी है, तो चोर को सजा क्यों नहीं मिलनी चाहिए?

यह लड़ाई किसी कवि विशेष को बचाने या उखाड़ने की लड़ाई नहीं है।यह लड़ाई है कविता और कवि सम्मेलन को बचाने की। इसलिए जो रचनाकर दिनकर, निराला, महादेवी इन महान साहित्यकारों के वास्तविक वंशज हैं,वे और अधिक संख्या में आगे आए और इस युद्ध को उसकी परिणीति तक पहुंचने तक थमने न दें।

तो आपको निर्णय लेना है, किसका साथ देना है? और किसका नहीं?

अब यदि फिर भी साहित्य शुचिता को म्यूज़ियम में देखने की चाह है तो सुन लें ,धन आपसे ही मरोड़कर आपको ही दिखाया जाएगा,

कि देखो, ये रही साहित्य शुचिता। कभी मंचों पर बहुत इतराती थी, मैंने इसे यहाँ ‘सजा’ दी। मैं सजा ही देता हूँ। कभी कविता को सजा , कभी महफिल को, कभी मौलिक को।
आओ, आप यूँ ही न निकल जाओ मेरे गुलिस्तां से, कि पहले आपको भी सजा दूँ।

तो आप इनकी सजा भुगतिए, या तो इन्हें सजा दीजिए।

रत्नमणि तिवारी

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