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लघुकथा — पाटन की पटोल” — नरेंद्र त्रिवेदी

 

“नीरज! क्या आप पाटन जा रहे हो?”
“हा, कार्यालयमें दो दिनका काम है इसलिए जा रहा हूँ।”
“एक बात कहना चाहती हूँ।
“सोनल क्या है! क्या बात है?”
“आप पाटन से मेरे लिए एक पटोल ला शकते हो?”
नीरज जानता था कि सोनलने अब तक कुछ नहीं मांगा है।
नीरज एक बार पाँच सौ रुपये की साड़ी सोनलके लिए लाया था तब माँ ने घर में बबाल मचा दी थी।
“माँ, सोनलने पाटनसे पटोल लाने के लिए कहा है।”
“कुछ भी नहीं लाना है। अब पहनके घर से बहार कहाँ जाएगी?”
पिताजी कुछ भी नहीं बोले और अपनी आँखोंसे सहमती देदी की तुमको सोनलके लिए पटोल लाना चाहिए।
“माँ आपके लिए पाटनसे एक साड़ी ले आया हूँ।”
“तू, सोनल के लिए कुछ नहीं लाया?”
“माँ अब बुढ़ापेमें सोनल पहनके कहाँ जाएगी।”
“मैं कहूंगी, तुझे लाना चाहिए। सोनल तेरी पत्नी है। आज तक तुझसे सोनलने कुछ भी नहीं मांगा हैं।”
“ये! लो, आप अपने हाथसे सोनलको पाटनका पटोल दे दो।”
नीरज और पिताजी की आँखें मुस्कुरा रही थीं … पिताजीकी आंखे कह रही थी बेटा तुम ज्यादा बुद्धिमान हो। आँखें आंखकी बात समझ गईं।

नरेंद्र त्रिवेदी।(भावनगर-गुजरात)

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