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संस्मरण — ज़ब पहली बार झूठ कहा..// नरेश चन्द्र उनियाल

 

“ओह! ये निशान कैसा है नरेश?” पूछा था माँ ने।
“माँ…मुझे न.. बैल ने सींग मारकर गिरा दिया। मैं पत्थर पर गिरा और यह चोट लग गयी।” सफ़ेद झूठ कहा था मैंने।
दरअसल तब मैं 10-11 वर्ष का बालक था। गाँव की प्राइमरी पाठशाला में पढ़ता था। गाँव में हमारी गौशाला में 6-7 गाय,बच्छी और बैल थे, जिन्हे चुगाने के लिए रोज जंगल जाना पड़ता था। मेरे एक ताऊ जी थे जो निरंतर गाय बच्छी चुगाने का काम करते थे।
उस दिन ताऊजी की तबियत ख़राब हो गई, और संयोग से उस दिन रविवार भी था, अर्थात् मेरी स्कूल की छुट्टी। तो आज गाय बच्छियों को जंगल चुगाने ले जाने की बारी हमारी लग गई। साथ के दो तीन और सहपाठियों को भी जंगल चलने को पटाया और चल दिए जंगल.. गाय चुगाने।
जंगल में एक बहुत बड़ा बरगद का पेड़ था। पेड़ से नीचे की ओर बहुत लम्बे-लम्बे बरोह या बरगद की जटा लटक रहे थे। हम लोग उन बरोह से झूला झूलने का लोभ संवरण नहीं कर सके।एक-एक करके सब झूले, मेरा नम्बर आया.. पेंग बढ़ाकर झूला.. पर यह क्या? एकदम से बरोह से मेरा हाथ फिसला, छूटा और में धड़ाम से जमीन पर…और सिर पत्थर से टकरा गया.. खून बहने लगा.. साथियों ने जैसे तैसे प्राथमिक उपचार किया।
घर पहुंचे तो माँ से झूठ कहना पड़ा, ताकि बरगद की जड़ों पर झूलने की और सजा न मिले।
-नरेश चन्द्र उनियाल,
पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखण्ड।

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