संस्मरण — जब मैंने बिल्ली के बच्चे देखे // उर्मिला पांडेय

जब मैंने अपनी बड़ी बहन चाचा की लड़की मीरा दीदी के साथ बिल्ली के बच्चे देखे।यह बात है सैंफयी के पास बैदपुरा गांव की,
मेरी उम्र करीब करीब थी पांच वर्ष की और मीरा दीदी की उम्र थी लगभग-लगभग सात वर्ष की हम दोनों बहनों में बहुत गहरी मित्रता थी, जहां भी जाना होता हम दोनों साथ में जाते और खूब मनभरके खेलते शोर शराबा ऊधम करते थे।
यह बात है कार्तिक मास शुक्ल पक्ष अष्टमी के बाद की मेरे यहां मेरे पिताजी श्री विद्यासागर दुवे श्रीमद्भागवत कथा करवा रहे थे।
सुबह और शाम को पांच छः बजे तक श्री मद्भागवत कथा होती थी।हम सभी भगवान की कथा खूब सुनते थे और व्यास जी जो गाते थे वह में भी गाती थी। मुझे गाने का बहुत शौक था।
एक दिन हम और मीरा दीदी वहीं बाबा के पास बैठे हुए थे वहीं से एक बिल्ली अपने बच्चों को लिए निकली छोटे छोटे बच्चे बहुत सुन्दर लग रहे थे। मैंने और मीरा दीदी ने उन बच्चों को पकड़ने की ठान ली।
हम दोनों उन बच्चों को ढ़ूढ़ती रहीं। बच्चे नहीं मिले बहुत परेशान हुए। मीरा मुझे अउआ कहके बुलाती थीं में उसे अउआ कहके बुलाती थी।एक रात को करीब साढ़े सात बजे वह बच्चे दिखाई दिये।घर में ही वह भूसे बाले कमरे में गये हम दोनों ने उन्हें देखा पर अंधेरा था अंधेरे में नहीं दिखे हम दोनों ने डिब्बी उठाई और उसे लेकर देखने लगे हवा चल रही थी।
मीरा दीदी ने कहा कि अउआ डिब्बी को फ्रॉक से ढक लो तो बुझेगी नहीं। मैंने डिब्बी को फ्रॉक से ढक लिया मेरी फ्रॉक जलने लगी मेरी दीदी रोने लगी मैं नहीं रोई। रोने की आवाज सुनकर उसी समय मेरे चाचा जी आए उन्होंने मेरी फ्रॉक को फाड़ दिया और मेरे ऊपर पानी डाला बहुत देर तक पानी डालते रहे कहीं फल्के ना पड़ जाएं फिर भी मेरे बहुत बड़े-बड़े फल्के पड़ गए।
भागवत में एक परेशानी उत्पन्न हो गई। टैरी काट की फ्रॉक थी वह चिपक कर रह गई डॉक्टर ने छुटाई और उसमें वर्नाल लगाया।
कुछ दिन बाद घाव सही हुआ।यह घटना मुझे अभी भी याद है।उस दिन से मैंने कभी डिब्बी नहीं छुई।
उर्मिला पाण्डेय कवयित्री मैनपुरी उत्तर प्रदेश