परंपरा — सुनीता तिवारी

9 वर्ष की उम्र में ब्याह कर आई नन्दिनी ये भी न जानती थी कि ससुराल क्या होता है।
द्वार चार की रस्में पूरी हुई तो सासू माँ ने एक तरफ ले जाकर बिठा दिया।
एक घंटे बाद भोजन ले कर आऊंगी कहीं जाना नहीं?
नंदिनी ने सोचा कि ये तो चलीं गयी अब मेरा राज्य।
साड़ी को ऊपर की तरफ खोंसा और कोने में पड़ी गिल्ली डंडा उठाकर खेलने चल दी।
खेलते खेलते आम का पेड़ दिखाई दिया।
चल रामू आम खाते हैं दोनों पेड़ पर चढ़ गए।
सासू माँ भोजन ले कर आयीं तो आवाज लगाई।
नंदिनी कहाँ गयी बेटा।
माँ मैं आम तोड़ कर खा रही हूँ।
पेड़ पर बैठी हूँ रामू भी मेरे साथ है।
कलमुँही उतर जल्दी।
अभी तो रस्में भी पूरी
न हुईं और तूने खट्टा खा लिया।
अभी नहीं उतरूंगी मैं।
बहुत सारे आम चूस कर उतर आऊंगी।
अब तो सासू माँ डंडा लेकर पेड़ के नीचे खड़ी और एक डंडा घुमाकर ज्योहीं नंदिनी को मारा डर के कारण रामू नीचे गिर गया दरअसल उसके हाथ से डाल छूट गयी थी।
मस्तिष्क से रक्त बहने लगा क्षण भर में प्राणपखेरू उड़ गए।
नंदिनी भी डरती हुई कूद कर आ गयी।
अब सबको रोता देखकर वह भी रोने लगी।
थोड़ी देर में परंपरानुसार अर्थी सजी और नंदिनी का सारा श्रृंगार उतार दिया गया।
सफेद वस्त्र से मुँह ढक कर बिठा दिया।
कल से तू पीछे वाले कमरे में रहेगी यहाँ नहीं।
कलमुँही आते ही मेरे बेटे को खा गई।
मीठे की जगह खट्टा खाकर लील गई रामू को।
तू काहे न गिर के मरी।
दाह संस्कार हुआ और नंदिनी के बाल मुंडवा दिए गए।
वह फूट- फूट कर रोती मेरे साथ ये न करो माँ।
मैं दो चोटी कैसे बांधूंगी।
बेचारी को आगे के जीवन की समझ ही नहीं थी।
परम्पराओं के नाम पर बच्चियों को सताना जरा भी न्यायसंगत नहीं है
ऐसी गलत परंपराओं को जड़ से मिटाना होगा।
सुनीता तिवारी