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जब मैंने मुड़कर देखा ज़िन्दगी को (विचार) — राजेन्द्र परिहार सैनिक

 

 

जब मैंने मुड़कर देखा ज़िन्दगी को तो महसूस हुआ कि हृदय पीछे ही छूट गया है और हृदयहीन ज़िन्दगी ही जी रहा हूं मैं। सुगंधित खिलखिलाते चमन को पीछे छोड़ कर शुष्क रेतीले रेगिस्तान की और बढ़ा जा रहा हूं मैं। प्रगति पथ की ज़ानिब निकला था घर से कहां पतन के रास्ते पर बढ़े चला जा रहा हूं मैं। अपनापन को पीछे छोड़ कर बेगानों की बस्ती में आ गया हूं। बचपन में ख्याल आया करते थे कि बड़ा हो जाऊं जल्दी से तो ये करना है,वो करना है।ये आभास कतई नहीं था कि जो कुछ भी ज़िन्दगी में अविस्मरणीय है वो बचपन ही तो है। ना किसी से द्वेषता,ना किसी से बैर,खुली आंखों से करते थे सपनों की सैर। ज़मीन आसमान का अंतर आ गया है तब में और अब मे। साधनहीनता में जो खुशियां थीं,वो साधन-संपन्न होने के बाद गंवा चुका हूं मैं। कृत्रिमता के फेर में वास्तविकता को खो चुका हूं मैं। जब मैंने पीछे मुड़कर देखा ज़िन्दगी को,,,तो हैरत में पड़ी ज़िन्दगी मुझे पहचान नहीं पाई। अज़नबीपन की झलक उसकी आंखों में स्पष्ट तौर पर नज़र आई।

राजेन्द्र परिहार सैनिक

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