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व्यंग्य — सम्मान छीनकर चाहिए जैसे ये कोई किराने की दुकान हो!

 

कुछ लोगों को सम्मान मांगकर नहीं, छीनकर चाहिए होता है। जैसे सम्मान कोई बिस्किट का पैकेट हो और दुनिया की भीड़ में सबसे पहले हाथ डालकर उठा लिया जाए—”देखो! मैं ले आया सम्मान!”। अब ये अलग बात है कि जिस सम्मान को इन्होंने छीनकर लाया, वो शायद किसी का सड़ा-गला आदर था, जो उसने खुद फेंक दिया था।

आजकल का ट्रेंड है—”मैं कुछ भी कर लूं, तुम मुझे सम्मान दो!”। चाहे ट्रैफिक रूल तोड़ो, सोशल मीडिया पर गालियाँ दो या फिर गली में बेकसूर को पीट दो—फिर भी उम्मीद ये कि लोग ताली बजाएँ और कहें, “वाह! क्या किरदार है!”

इन्हें मंच चाहिए, माइक चाहिए, और भीड़ चाहिए जो चिल्लाए—”ओ भैया, तू तो महान है!” अब ये महानता किताबों में नहीं, इंस्टा रील्स और ट्विटर थ्रेड्स में मिलती है। कुछ तो इतने महान होते हैं कि खुद ही अपने पोस्ट पर कमेंट कर देते हैं: “आप वाकई सम्मान के हकदार हैं!” — और फिर खुद ही उस कमेंट पर दिल बना देते हैं।

आखिर में इनसे कोई पूछ बैठे, “भाई, ये जो तुमने सम्मान छीना है, वो असली है या चाइनीज़?” तो तुरंत जवाब मिलता है, “जो दिखता है वही बिकता है, असली-नकली का जमाना गया!”

तो जनाब, अगर अगली बार कोई बोले “मुझे सम्मान छीनकर चाहिए” — तो समझ जाइए, वो शायद इज्ज़त नहीं, वायरल होने की भूख में है।
अनामिका “निधि”

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