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वो अविस्मरणीय बरसात — राजेन्द्र परिहार “सैनिक”

 

यूं तो जीवन में कई बार भीषण बरसातों का सामना किया है,लेकिन एक बार की भयंकर अविस्मरणीय बरसात जो शायद ज़िन्दगी भर नहीं भुला पाऊंगा।

ये वाकया हुआ तब मेरी उम्र १३-१४ साल रही होगी, लेकिन वो भयंकर बरसात का डरावना दृश्य अब भी रोम रोम सिहरा देता है। गांव में हमारे घर से लगभग आधा किलोमीटर दूर एक बरसाती नदी बहा करती थी। उस जमाने में बरसात के मौसम को चौमासा कहा जाता था और वास्तव में ही चार महीने ही लगातार बरसात हुआ करती थी और पंद्रह दिन की झड़ी तो
लगती ही लगती थी। एक बार ऐसे ही लगातार चार पांच दिन से बरसात का क्रम जारी था। पूरा गांव अपने अपने घरों में कैद होकर रह गया था। चूंकि मकान तब कच्चे हुआ करते थे उनके ढहने का भी खतरा रहता था। मुझे आज भी याद है वो भयानक रात जब नदी का पानी घर में भर गया था और बाहर बरसात का ताण्डव जारी था। अंदर पानी,बाहर पानी जाएं तो कहां जाएं?? और जान बचाने के लिए बाहर निकलना भी जरूरी था। मां, पिता जी के चेहरों पर चिंता और भय की
लकीरें स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। हम तो बच्चे थे इसलिए घबरा गये थे। मां, पिता जी ने समझाया बेटा ज़िन्दगी में मुसीबतें आती रहती हैं इनसे डरना नहीं बल्कि सामना करना पड़ता है। पानी का स्तर बढ़ता जा रहा था और परेशानी का स्तर भी लगातार बढ़े जा रहा था।अचानक पिताजी ने कहा कि जरूरत का सामान सिर पर उठाओ और घर से बाहर निकलो। अपने अपने बूते के हिसाब से सबने सामान उठाया और सरकारी स्कूल की
ओर रवाना हो गए। सरकारी स्कूल काफी ऊंचाई पर स्थित था सो सभी जैसे तैसे डगमगाते हुए स्कूल में पहुंच गए। वहां पहुंच कर कुछ शान्ति मिली लेकिन बरसात का ताण्डव नृत्य फिर भी जारी था। गीले कपड़े और बरसात की ठंडी बूंदों से शरीर में कंपकपी छूट रही थी। अंधेरा होने से कुछ सूझ भी नहीं रहा था।पिताजी ने लालटेन जलाकर उजाला किया और कहा कि सब
गीले कपड़े उतार दो और सूखे कपड़े पहन लो वरना सर्दी ज़ुकाम लग जाएगा। रात गई लेकिन बात नहीं गई,दूसरा दिन उदय हो गया लेकिन बरसात अब भी डटी हुई थी। नदी किसी राक्षस की भांति प्रतीत हो रही थी। भूख से हालत पस्त हो रही थी। खैर दोपहर बाद बरसात एक दम शांत हो गई और नदी का जलस्तर भी घटता गया। तीसरे दिन जाकर पानी घरों से उतर गया। अपने कीचड़ सने घर और कच्चे रास्तों को देखकर
रोना आ रहा था। आखिर बड़ी मेहनत मशक्कत के बाद चूल्हे पर खाना बना। संतोष की बात यह थी कि बरसात बंद हो चुकी थी और धूप निकल आई थी। ऐसी अविस्मरणीय बरसात फिर से नहीं देखने को मिले यही दुआ है भगवान से।

राजेन्द्र परिहार “सैनिक”

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