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भारतीय साहित्य में धर्मनिरपेक्षता पर उठते सवाल: – क्या सनातन धर्म पर लिखने से साहित्यकारों की स्वीकार्यता कम होती है // देवेन्द्र सिंह

 

वर्तमान सामाजिक और साहित्यिक परिदृश्य में धर्मनिरपेक्षता का एक नया वितंडावाद देखने को मिल रहा है। हिन्दी साहित्य में एक विचारधारा तेजी से उभर रही है, जिसमें सनातन धर्म और हिन्दू मूल्यों पर खुलकर लिखने से साहित्यकार कतरा रहे हैं। यह स्थिति उस समय और भी चिंताजनक हो जाती है, जब दूसरी ओर कुछ मुस्लिम साहित्यकार और शायर मंचों पर खुलकर हिन्दू विरोधी विचार प्रस्तुत करते हैं और उन्हें व्यापक स्वीकृति मिलती है।

धर्मनिरपेक्षता की विडंबना

एक ओर, सनातन धर्म के साहित्यकार धर्मनिरपेक्षता का चोला ओढ़ने में इतने व्यस्त हैं कि सत्य को भी अभिव्यक्त करने से डरते हैं। वहीं, दूसरी ओर, मुस्लिम साहित्यकार इस्लाम की कुरीतियों पर चुप रहते हुए, खुलकर हिन्दू धर्म की आलोचना करते हैं। यह दोहरी मानसिकता हिन्दी साहित्य के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप पर सवाल खड़ा करती है।

मंचों पर बदलती धारणाएं
हाल के वर्षों में राहत इंदौरी और मुनव्वर राणा जैसे शायरों ने हिन्दूवादी विचारों के खिलाफ मंचों पर अपनी बात रखी, जबकि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष साहित्यकारों ने उन्हें समर्थन देते हुए तालियाँ बजाईं। यह स्थिति बताती है कि हिन्दू विरोध करना और सनातन धर्म की आलोचना करना आज साहित्य में प्रगतिशील होने का पर्याय बन गया है।

सोशल मीडिया और साहित्यिक समूहों में दिखती पक्षपातपूर्ण प्रवृत्ति
सोशल मीडिया के साहित्यिक मंचों पर भी यह पक्षपात स्पष्ट दिखता है। राष्ट्रवादी या सनातन धर्म आधारित रचनाओं को हाशिये पर रख दिया जाता है। इनके आयोजक असहज हो जाते हैं, भले ही रचनाएँ पूर्णतः तथ्य और सत्य पर आधारित क्यों न हों।

साहित्य समाज का दर्पण है, लेकिन क्या यह अब भी सच है?
साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है, लेकिन धर्मनिरपेक्षता की इस कुत्सित प्रवृत्ति ने इसे कायरता और पक्षपात का मुखौटा पहनने पर मजबूर कर दिया है। हिन्दू साहित्यकारों के बीच धर्म और सत्य पर आधारित लेखन को लेकर जो झिझक उत्पन्न हुई है, उसने साहित्य को समाज का सच्चा प्रतिबिंब बनने से रोक दिया है।

निष्कर्ष
यह विचार किसी विशेष समुदाय को आहत करने के लिए नहीं, बल्कि साहित्य के मौजूदा स्वरूप पर एक ईमानदार आत्ममंथन की कोशिश है। यदि साहित्य को सच में समाज का दर्पण बनाना है, तो इसे सत्य के साथ खड़ा होना होगा, चाहे वह किसी भी धर्म या विचारधारा से जुड़ा क्यों न हो।

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