परित्यक्ता नारी // सुप्रसिद्ध लेखिका व कवियित्री कंचन सक्सेना की कलम से
समाज बड़ा निर्दयी है,देता है कठोर आघात !
जीने न देता दो क्षण सुकून के,
परित्यक्ता नारी के विषय में ,
बाज़ नहीं आता टीका टिप्पणी से ,
स्वतंत्र ही नही कितनी स्वच्छन्द है,
अभिमान तो सिर चढ़कर बोलता है !
शायद कोई राज़ लिए है,
मासूम चेहरे के भावों को पढने की
हर सम्भव कोशिश हो जाती नाकाम,
तव्वजो़ जो न देती किसी को,
तय किये सफ़लता के सोपान
अपने दम पर,साहस का परिचय देती
मुकम्मल जहां पाती,तापसी जीवन भी
क्या चर्चा का कारण?
हैरानी है यह, परित्यक्ता समझ
न जाने कितने किस्से बना डाले ,
स्वाभिमान को तौलाअभिमान की तुला पर,
करता रहा नित नये प्रयास कमतर आँकने के,
सम्वेदनहीन समाज की अपाक्
विचारधारा जीने न देती सुकनसे
आत्मसम्मान से जीती स्त्री को ,
परित्यक्ता नहीं, तलाकशुदा हूँ मैं ,
छोडा है मैंने उस रिश्ते को ,घुटता था जिसमें दम मेरा ,
पल प्रतिपल छलनी होता था हृदय मेरा,
विवश, अवलम्ब की तलाश में
सहन न कर पायी अन्याय ,
जकडी़ नहीं समाज की बेडि़यों में,
निकल पडी़ वजूद की तलाश में ,
अस्तित्व को प्रमाणित करती,
हौंसले का परचम थामे
अनजान पथ पर ,चलती रही निरन्तर
अविराम, अनथक, अडिग इरादों के साथ
और हासिल किया मुकाम और , और क्या?
बस समाज को रास न आया मेरा यह बागी रूप।
डाॅ कंचना सक्सेना