अनजान” // अशोक कुमार मिश्र

“अनजान” // अशोक कुमार मिश्र
आज अचानक प्रातः उठते ही विचार आया कि कटिंग(हेयर कट) करा आते हैं, सो पास के ही एक सैलून पर गया। वहाँ पहुँच कर देखा की सेलून खुला ही नहीं था, जिसे देख कर मेरे मुँह से सहसा ही निकल गया, “अरे अभी तो ये खुला ही नहीं है और मैं इतनी जल्दी पहुँच गया”। इंतजार के अलावा कोई विकल्प न जान कर वहीं खड़ा होकर इंतेज़ार करने लगा। खड़े ही थे कि सैलून के बिल्कुल बगल के मकान का दरवाजा खुला, एक बुजुर्ग से व्यक्ति मास्क लगाए हुए झाड़ू लगा रहे थे ,शायद अकेले रहे होंगे। कोई प्रयोजन तो था नहीं, इसलिए सिवाय देखने के मेरी कोई प्रतिक्रिया नहीं थी।
इसी बीच एक अधेड़ सा व्यक्ति दूध का पैकेट लेकर आया और उन बुजुर्ग के पाँव छुए, उन्होंने भी ‘खुश रहो’ कहा और अपने काम में लग गए। क्षण भर बाद ही एक और बुजुर्ग, जो उनसे भी बड़े रहे होंगे, नहा कर जल लेकर निकले। शायद जल चढ़ाने जा रहे होंगे। चुपचाप जल का लोटा लिए वहाँ से चले गए और कुछ ही अंतराल के बाद वापस आये। तब तक पहले बुजुर्ग का झाड़ू लगाने का काम पूरा हो चुका था और वे हाथ धोकर उनके लौटने की प्रतीक्षा में ही थे, कि वो आ गए। लपक कर पहले वाले बुज़ुर्ग ने उनके चरण स्पर्श किये। पैर छूकर जैसे ही उठे, तपाक से बोले “ यह क्या? बिना मास्क के गए थे! यदि मास्क लगाकर जाते तो क्या देवी माँ आपको पहचानने से मना कर देती?” आशीर्वाद के उपरांत उन्होंने कहा “भूल गया था!” और अंदर चले गए। खैर, मेरा बार्बर आ गया था, सो मैं कटिंग करवाने बैठ गया।
अभी कटिंग पूरी नहीं हुई थी कि एक आवाज आई, जो शायद मेरे बार्बर सन्तू के लिए थी। “गिलास है क्या?” सहम कर सन्तू ने गर्दन हिला कर नकारत्मक जबाव दिया। मैंने मुड़ कर देखा तो वही अंकल जो अभी बीस मिनट पहले झाड़ू लगा रहे थे, अब हाथ में जग लिए सैलून के सामने खड़े थे। सन्तू का जवाब जानकर अंकल ने निर्देश देते हुए कहा, “जाओ गिलास की व्यवस्था करो और मेरी मसाले दार चाय पिओ। और सुनो, गिलास जादा लेकर आना, सिर्फ़ अपने लिए ही मत ले आना” आनन फानन सन्तू गिलास लाया और चाय ले ली। उनका अगला निर्देश मुझे चाय देने का था जिसे न चाहते हुए भी मैं ठुकरा नहीं पाया और सहर्ष चाय ले के पीने लगा। यह जानते हुए भी कि अनजान व्यक्ति से किसी खाने पीने की वस्तु नहीं लेनी चाहिए, पर उस घड़ी मैं किंकर्तव्यविमूढ़ ही रहा और चाय की चुस्की के साथ अपने पन की पराकाष्ठा को समझने लगा।
उसी दौरान उन्होंने बिल्कुल पास के ही दूसरे सैलून वाले को चाय दी, परंतु पहले गिलास न होने पर डाँटा और कहा “यह तुम्हारा ‘वर्क प्लेस’ है इतनी तो व्यवस्था रखना सीखो। घोड़े जितने हो गए हो सब लेकिन तुम सब निहायती मूर्ख ही रहोगे!” फिर दूसरे ग्राहकों का चाय पिलाने का क्रम जारी रखा और यहां तक कि सफाई वाले को भी स्वयं गिलास देकर चाय दी। आख़िर में सामूहिक रूप से सबको डिस्पोजल गिलास डस्टबिन में डालने का निर्देश देकर अपने घर में चले गए।
कटिंग हो चुकी थी और मैं भी जल्दी में था, सो नाई से उनके बारे में जानने की अभिलाषा मन में लिए ही घर चला गया। आज पूरे दिन मैं उनके बारे में सोच कर स्तब्ध ही रहा, कि आज जहां इस कोरोना काल में भी हम मास्क लगाने में आलस करते हैं, और एक कप चाय के लिए भी बहाने बनाते हैं, वहीं उस बुजुर्ग ने तक़रीबन सात से आठ लोगों को चाय यूँ ही पिला दी। उनसे मिलकर हर छोटे-बड़े ने कुछ ना कुछ तो सीखा जरूर होगा। मैं भी सोचता रहा कि उन बुजुर्ग अंकल के बारे में उसी सैलून जाकर उनके बारे में अवश्य जानूँगा, शायद अगली बार हमें कुछ नई सीख मिले यद्यपि अनजान ही हैं।शिक्षा के लिए किसी विद्यालय का होना ही आवश्यक नहीं, अनजान सा व्यक्तित्व कब ,कहाँ और कैसे सीख देदे यह तो सीख लेने वाले पर निर्भर है, पर किसी के अंदर उतनी सीखने की इच्छा होती कहाँ है आजकल! जीवन प्रबंधन के सभी टॉपिक फिर चाहे वो श्रद्धा, प्रेम, शिक्षा, स्वास्थ्य, बड़ों का आदर और छोटों से लगाव या फिर स्वच्छता किसी का भी हो, कितने अदृश्य बिंदु सिखा गए उस क्षण भर की क्लास में।
अनजाने यह सब गुरु रूप ही तो हैं, जिनकी अक्सर कुछ लोग अज्ञानता वश हँसी बनाते हैं। कितने सहज और सरल! अपनों से भी अपने! मैं चाय के मसाले के विश्लेषण में आज भी हूँ कि क्या क्या पड़ा था उस चाय के मसाले में जो इतनी स्वादिष्ट चाय थी। मैंने इससे पहले क़भी न ऐसी प्यारी सी डाँट सुनी और न ही इतनी स्वादिष्ट चाय का स्वाद लिया था। शायद उन मसालों का विश्लेषण मेरे बस में नहीं है अगली बार तो प्रणाम कर पूछ कर ही आऊंगा उस ‘अनजान’ गुरु से।
अशोक कुमार मिश्र,’निर्मल’