अपंग दिव्यांग और साअंग : एक चिंतन क्रमांक 1// सीमा शुक्ला चांद

अनंत काल से अपंग और साअंग शब्दों का प्रयोग पृथ्वी पर किया जा रहा है। आम बोलचाल की भाषा में इन दोनों ही दशाओं को शारीरिक पैमाने पर नापा जाता है। लंबे समय वह जीव जिसकी उत्पत्ति के समय या उत्पत्ति के पश्चात शरीर की सारी कोशिकाएं यथास्थान यथा रूप यथा रंग हैं उन्हें लोग साअंग कहकर सम्बोधित करते हैं। ऐसे हर जीव को सभी कार्यों को करने में सर्वाधिक सुयोग्य व सक्षम माना जाता है। हर समाज में ऐसे जीवों को उन्नति के संसाधन के रूप में गिना जाता हैं।
वहीं दूसरी ओर इसी धरा पर कुछ जीव उत्पत्ति के समय या उत्पत्ति के पश्चात शरीर की समस्त कोशिकाओं में से कुछ एक कोशिकाओं की कमी या स्थान रंग रूप आकार आदी में अंतर के साथ जन्म लेते हैं। समाज ऐसे शारिरिक दृष्टि से पृथक दिखने वाले जीवों को अपंग कहकर सम्बोधित करती हैं। प्रबुद्ध समाज के सुस्थापित सदस्य भी कभी कभी ऐसे जीवों को क्षमता हिन समझ हेय दृष्टि से देखते हैं। प्रत्येक समाज ये पूर्वधारणा धारित कर लेता है कि ऐसे जीवों में कौशल कला तथा कर्तव्य को करने की कमी होगी। ये पूर्वधारणा इन अपंग जीवो के आत्मविश्वास को तोड़ने का कार्य करता है।
अब समझना यह है की साअंग ऐसा क्या करें की उसमें और अपंग जीवो के कौशल में समानता आ जाए. मनोविज्ञान हमें सीखाता है की हमारा व्यवहार बहुत कुछ हमारे आसपास के वातावरण द्वारा संचालित होता है। जैसे एक जीव जन्म काल से साअंग है या अपंग यदि हम ये निर्धारित किए बिना उसका पालन पोषण करना प्रारंभ करें तो वो जीव जो अपंग की श्रेणी में रखा गया है वह अपने आप अपनी शारीरिक दुर्बलताओं के साथ भी कौशल के साथ हर कार्य करना सीख जाएगा और फिर वही अपंग जीव दिव्यांग कहलाएगा। आप जानते हैं किसी भी जीव के बच्चे के स्वभाव का निर्माण आसपास के वातावरण से ही होता है एक बालक को आप निरंतर जिद्दी है बोलते रहिए वै बालक भविष्य में जिद्दी ही बंध जाएगा। इसी प्रकार यदि आप किसी अपंग जीव के साथ साअंगो सा व्यवहार करेंगे उसे एहसास करा पाएंगे की लहर पूर्ण है तो वो भी आपको निराश नहीं करेगा।
विश्व में जैसे जैसे दिव्यांगो की संख्या बढ़ूंगी अपंगता मूलत नष्ट हो जाऐगी।
सीमा शुक्ला चांद