बदलता वक्त और मानवीय संवेदनाओं का दफ़न // लेखिका शिखा खुराना

वर्तमान समय में मानवीय संवेदनाओं के कम होने और आत्मकेंद्रितता के बढ़ने की समस्या हमारे सामने है। लोग इतने व्यस्त हो गए हैं कि वे अपने आसपास के लोगों की संवेदनाओं को समझने का समय नहीं निकाल पाते।
आत्मकेंद्रितता के कारण लोग अपने अलावा किसी और की संवेदनाओं को समझने की जरूरत नहीं महसूस करते।
मेरे विचार से ये चिंता प्रासंगिक और महत्वपूर्ण हैं। मैं अपने इस लेख के ज़रिए पाठकों को अपने आसपास के लोगों के प्रति अधिक संवेदनशील और सहानुभूतिपूर्ण बनने के लिए प्रेरित करना चाहती हूं।
हमारी संवेदनाएं और सामाजिक जुड़ाव हमारी संस्कृति और परंपराओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।
हम संवेदनाओं से भरे हुए मानव थे। दुःख से दुःखी होकर मृत समान हो जाते थे। सोशल मीडिया ने संवेदनाओं पर रोक लगा दी है। खुशियां भी सिर्फ दिखावे के लिए मनाते हैं।
याद करते हैं जब कभी घर, परिवार में तो क्या, अड़ोस-पड़ोस में भी कोई मृत्यु या हादसा हो जाता था, तो उस वेदना से बाहर आने में महीनों-बरसों लग जाते थे। जीवन को पटरी पर वापस लाने के लिए रिश्तेदारों, पड़ोसियों और मित्रों को मृतक के परिजनों के साथ अपनी उपस्थिति देनी होती थी।
आज के संदर्भ में कहें, तो सबको गीता का गूढ़ ज्ञान है कि मृत्यु शाश्वत है, तो किसी के जाने का दुःख क्षणभर को ही होता है और फिर सब अपने कर्मों में जुट जाते हैं।
बड़े शहरों में देखा जा रहा था कि समय की कमी के चलते 13 या 17 दिन तक चलने वाले मृत्यु शोक को समेटकर 4 दिन में समाप्त कर दिया जाता है। किंतु, अब तो, क्योंकि डिजिटल युग है और सोशल मीडिया छोटे शहरों, गांवों और कस्बों तक फैला हुआ है, तो संवेदनाएं वहां भी कम होते होते शोक मनाने में समय बर्बाद नहीं करतीं।
शोक मनाना छोड़िए, अब खुशियां मनाने के लिए भी लोगों को अपनी संवेदनाएं खर्च करने की जरूरत नहीं हो�