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चिट्ठियाँ – संस्मरण — कविता साव

 

बात जब चिट्ठियों की आती है तो हमें अपना गुजरा जमाना याद आ जाता है। उस समय बेटियों को पढ़ाना लिखाना लोग जरूरी नहीं समझते थे,लेकिन ये चिट्ठी ही है जिसने हम बेटियों को पढ़ने का एक सुनहरा मौका दे गई।जब ब्याह के बाद बेटी अपने ससुराल जाती,और ससुराल में होने वाले अत्याचार और हादसे होने लगे तो अभिभावकों के कान खड़े हो गए। फिर सबने अपने विचार में एक नया परिवर्तन दिखाई दिया कि बेटी को भी पढ़ना जरूरी है।
बेटी चाहे जहाँ रहे कम से कम अपनी जानकारी तो हमें चिट्ठी के जरिए दे ही सकती है।जरूरत पर स्वावलंबी हो सकती है,अपने हालातों से जूझने की क्षमता भी उसमें होगी।
हमारे समय में मोबाइल तो थी नहीं ,लेकिन चिट्ठी की बात ही कुछ और थी।मोबाइल से कहीं ज्यादा अहमियत थी चिट्ठी की।जानकारी मिलने में भले ही वक्त ज्यादा लगता था लेकिन इंतजार का मजा ही कुछ और था। बड़ी बेसब्री से लोग चिट्ठी का इंतजार करते थे और जैसे ही चिट्ठी हाथ लगती दिल बाग बाग हो जाता था। ये चिट्ठी केवल खैरो
खबर का माध्यम नहीं बल्कि अपनों से अपनों का गहरा लगाव की प्रतीक थी ये चिट्ठी,जिसे पढ़कर हृदय उमंगित हो उठता था,हर्षित और प्रफुल्लित मन से पढ़ी जाती थी।पढ़ते समय मन में उठने वाला एहसास बहुत खास होता था,ऐसा लगता था जैसे चिट्ठी पढ़ी नहीं जा रही है बल्कि हम उस इंसान से साक्षात् बात कर रहे हैं।
कभी खुशी कभी ग़म का संदेशा देनेवाली वो चिट्ठियों का दौर भी बहुत गजब का था।कभी खुशी के आंसू तो कभी विषाद के विलाप का भी वाहक थी ये चिट्ठी। परन्तु हालात चाहे जैसी भी हो आपसी संबंधों को जोड़े रखने की एक लीक थी ये चिट्ठी।
आज भले ही हम सभी मोबाइल से मिनटों में बातें जी भर कर सकते है,साक्षात्कार भी हो जाता है लेकिन उस इंतजार का एहसास नहीं होता जो चिट्ठी दे गई हमें।

कविता साव
पश्चिम बंगाल

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