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कहानी –पीर अनकही — मंजू शर्मा

 

यूँ ही आते-जाते दिनों के खेल में एक दिन जीवन का ये खेल खत्म हो जाएगा। फिर समझने के लिए कुछ भी न बचेगा। न प्रेम,न मौन और न उम्मीदें… रूंधे कंठ से मन-मन ही सोचते हुए इसी उहापोह में आज ‘स्मृति’ अतीत के उन लम्हों में पहुँच गई। जहाँ प्रेम की गली अति सांकरी थी। एकसाथ बढ़ते छोटे-छोटे कदम न जाने कब बड़े हो गए। उस बालपन की मासूमियत जब कभी याद आती है तो अचानक सुर्ख गुलाबी होता चेहरा यादों के कितने ही सतरंगी इंद्रधनुष अपने भीतर समेट लेता है। वो हर मोड़ पर किसी का इंतजार बिना आहट के ही दिल की धड़कनें बढ़ा जाता है।आज बरसों बाद गुजरी उन्हीं गलियों से जहाँ रेत के टीले, नदी का छोर और संकरी गलियों में अनेक यादें छिपी थी। स्मृति ने देखा गौर से उन दीवारों को जहाँ चौक से लिखे हुए उन लम्हों की यादें आज भी जिंदा थी। मिटी नहीं थी बस वक्त की धूल से धुंधली हो गई थी। वहीं पड़ी उस टीले की रेत को बंद करना चाहा मुट्ठी में बचपन की उन स्मृतियों के साथ…सिर पर ढोया था जिसे… नये घर की नींव भरने के लिए। आज उस घर की दीवारों ने भी पहचानने से इंकार कर दिया। जिसकी एक-एक दीवार का पत्थर अपने हाथों द्वारा घोली सीमेंट से जोड़ा था। स्मृति, कुछ पल मौन खड़ी उन दीवारों को निहारने लगी। फिर पूछा दीवारों से…ये क्या, ‘तुम मूक दर्शक बनी देख रही हो। क्या पहचाना नहीं मुझे?’ तुम्हारे खम्बों को सीने से लगाकर हमनें आँख-मिचौली खेली है यहाँ। तीबारी में डले झूले पर बैठकर जाने कितने सपने बुने थे एकसाथ… तभी दीवारों ने कहा हाँ बिटिया, ‘भूलें नहीं कुछ भी,बस अब अकेलेपन से सब जर-जर होकर ढहने लगा है । तुम सब छोड़कर शहरों में जा बसे… तुम्हारे बाद भी आये कुछ दिन तुम्हारे संगी साथी इस गली से गुजरते हाल-चाल पूछ लेते थे लेकिन तुझे न पाकर वो भी नहीं ठहरते ज्यादा देर। स्मृति ने फिर से उस खंबे को गले से लगाया और चल पड़ी बचपन की सारी यादों को समेट… लम्बे-लम्बे कदमों से जा पहुँची उस नदी के छोर पर जहाँ परेशान होने पर अक्सर जा बैठती थी । मौन से उकताकर खीज में भरकर अक्सर फेंकती थी पत्थर उस नदी के पानी में और उस हलचल को एकटक निहारती रहती थी। तभी समर, पीछे से आकर उसके करीब आ बैठता। एकदम ठहरे पानी-सा शांत…फिर कुछ देर तक अपलक झपकें उसे निहारता रहता। जाने वो क्या देखता इस भांति मुझमें ?… पूछने पर कहता, ‘तुम गुस्से में और भी खूबसूरत लगती हो।’ बस उसके इतना कहते ही स्मृति और भी चिढ़ जाती। जैसे ही वहांँ से जाने के लिए उठती तभी समर, हाथ पकड़ कर उसे वहीं बिठा लेता और कहता, ‘आज स्मृति महारानी का मूढ़ किस बात से उखड़ा हुआ है। क्या ये पागल दीवाना जान सकता है । मेमसाब’ इतना बोलते ही स्मृति शरम से नजरें झुका उसके कंधे पर अपना सिर रख देती। जैसे ही वो सिर पर हाथ फेरता सारा दर्द और गुस्सा छूमंतर हो जाता। मन का हर कोना गुलमोहर के फूलों-सा खिल उठता। जाने प्रेम का कैसा स्पर्श था वो हरसिंगार की खुशबू-सा महका जाता था।
और फिर समय कहाँ पंख लगाकर उड़ जाता । दोनों घंटों एक दूसरे से बातें करते। कभी-कभी बिना कुछ कहे ही घंटों बैठे रहते। बस मौन होकर एक-दूसरे को निहारते रहते। बिना कुछ कहे ही मन की बातें जान लेते थे। ये साथ एक दिन का नहीं बरसों का रहा। भले ही इज़हार न किया कभी प्यार का लेकिन अहसासों में दोनों एक दूजे के बसते। समय ने करवट ली। स्मृति की शादी तय हो गई । वो दूसरे शहर जा बसी…शादी समर ने भी कर ली थी । उसके बाद दोनों कभी नहीं मिले।लेकिन दोनों एक-दूसरे को बिना मिले भी कभी भूल नहीं पाए। आज बरसों बाद एक सहेली ने बताया समर को किसी जानलेवा बिमारी ने जकड़ लिया है।
ये बात सुनकर स्मृति का एकबार फिर से मन तो हुआ उसी नदी के छोर पर जाने का…उसकी तरह शांत बैठकर उसे निहारने का…कभी न ओझल होने के लिए । उसकी तस्वीर को अपनी आंँखों में बसा लेने का…. लेकिन मर्यादाओं का लबादा ओढ़े स्मृति अंदर ही अंदर घूटकर रह गई। उस दिन कहीं मन न लग रहा था। आज बड़े दिनों बाद एक अजीब-सी बेचैनी को महसूस किया स्मृति ने…बस इसी उहापोह में रात हो गई और वो अनमने मन से सोने की कोशिश कर रही थी।लग रहा था जैसे नींद आँखों से कोसों दूर हो। वो मन ही मन भगवान से प्रार्थना कर रही थी । समर जल्द ही स्वस्थ होकर अपने परिवार की बागडोर फिर से संभाल ले। भले ही वो आज मेरे लिए कुछ भी नहीं है लेकिन कभी तो सबकुछ था। यही सोचते-सोचते जाने कब नींद ने अपने आगोश में भर लिया।उसी रात सपने में समर ने जाते हुए एक गीत गुनगुनाया…
“हम छोड़ चले इस दुनिया को कभी याद आये तो मत रोना”
तभी स्मृति की अचानक आँखें खुली तो खुद को पसीने से लथपथ पाया। तभी मन में बेचैनी बढ़ने लगी बरसों बाद का ये कैसा अहसास था। फिर नींद नहीं आई। सुबह उठकर अपने दैनिक कार्यों में लगी स्मृति उलझ-सी गई थी। आखिर किससे पूछें? समर की सलामती…उसी समय फोन की घंटी बजी स्मृति की धड़कनें तेज हो गई। फोन उसकी सहेली का था । उसने कहा, स्मृति…”समर अब हमारे बीच नहीं रहा।”तभी स्मृति को लगा जैसे बरसों का इंतजार एक पल में समाप्त हो गया। एकबार फिर से टूटकर खुद को समेटा और झूठी मुस्कान के साथ अपनी जिम्मेदारियों में लग गई स्मृति, ये सोचते हुए…कितनी कम उम्र थी हमारे प्रेम की…न कभी इज़हार किया और न कभी खुलकर एलान। कितना झिंझोड़ा खुद वो शब्द आये ही नहीं जुबान पर…जब कहना चाहा मन ने तब मौन था उधर।अब लगता है एक दिन वो भी आ जाएगा जब मृत्यु मौन में बदल जाएगी।तब क्या ही ख्वाब सजाएंगे?
कैसे कह पाएंगे , नये सफ़र में किसी मोड़ पर, नयी जिंदगी की रोशनी के बीच तुम मिलना… कुछ पल ठहरना उस ठंडी होती राख के साथ उस घाट पर…उस दिन तुम्हारे कांधे पर सिर रखकर उस मौन के साथ अपने प्रेम का समर्पण करना चाहती हूँ। तुम उसी घाट पर मेरे प्रेम को स्वीकार कर मेरा तर्पण कर देना।
मैं अब इस संसार से मुक्त होना चाहती हूँ।
तुममें विलीन होकर सुप्त होना चाहती हूँ।

मंजू शर्मा कार्यकारी संपादक

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