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कहानी –“वो सुनसान स्टेशन” नरेश चन्द्र उनियाल

 

प्रतीक आज पाँच साल बाद घर लौट रहा था। गाँव के उस सुनसान रेलवे प्लेटफार्म पर वह सुबह होने की प्रतीक्षा कर रहा था। क्योंकि यहाँ से उसे अपने गांव तक पाँच किमी की दूरी तय करनी थी, और रात को इस जगह से कहीं भी आने जाने के लिए कोई वाहन नहीं मिलता था। इस स्टेशन तक आने वाली एकमात्र ट्रेन उसे रात दस बजे यहाँ छोड़कर 11बजे वापस हो ली थी।
स्टेशन पर एक स्टेशन मास्टर और दो एक अन्य स्टॉफ कर्मचारियों के अलावा प्रतीक को कोई दिखाई नहीं दिया था।
लगभग रात का 2 बजे रहा था… प्रतीक को कुछ ठण्ड सी महसूस हुई तो उसने बैग से कम्बल निकालकर ओढ़ लिया। कम्बल में कुछ गर्मी मिली तो आँखें बोझिल हो गईं उसकी.. और वह नींद की आगोश में समा गया।
सुबह आंख खुलते ही प्रतीक एकदम से चौंक पड़ा अरे यह क्या ? कोई और भी उसकी बगल में उसके कम्बल को ओढ़कर सोया पड़ा था। नख से सिर तक कम्बल से ढका हुआ…पास में ही फूलों से भरी हुईं एक डलिया पड़ी थी।
प्रतीक ने उत्सुकताबस उस अजनबी के सिर से कम्बल हटाया तो उसकी नजरें अजनबी के चेहरे पर कुन्द होकर रह गयीं…घनघोर निंद्रा की आगोश में वह बेमिसाल सौंदर्य की प्रतिमूर्ति एक युवती थी…प्रतीक उस असीम सौंदर्य की मूर्ति को निहारता रह गया।
प्रतीक किंकर्तव्यविमूढ़ सोचता रहा कि क्या करूं? उस युवती की नींद ख़राब करना भी नहीं चाहता और कम्बल छोड़कर जाना भी नहीं चाहता था वह…आखिर उसने अजनबी को आवाज दे ही डाली… “अजी… सुबह हो गई है.. उठ जाइये.. कौन हैं आप?.. कहाँ जाएँगी?” कई प्रश्न एक साथ उछाल दिए थे प्रतीक ने।
युवती ने आँखें खोलीं…वास्तविकता को समझकर वह झेंप उठी….”मु…झे मा.. आ..फ कर दीजिये प्लीज…. रात को बहुत ठण्ड थी तो आपका कम्बल मैंने भी ओढ़ लिया…. सॉरी” डरते हुए कहा था उसने।
“आप हैं कौन और कहाँ से आयी हैं? कहाँ जाएँगी?” प्रतीक ने पूछा।
“मेरा नाम कनिका है… यहीं स्टेशन पर फूल बेचती हूँ। कल फूल बिके नहीं तो.. रात हो गई और मैं घर नहीं जा सकी।प्रतीक्षा कक्ष में बैठी सुबह होने की प्रतीक्षा कर रही थी… कि ठण्ड के कारण…..”
“हूँ….ऊ” बीच में ही बोल उठा प्रतीक… “आपको सावधान रहना चाहिए… समय से घर निकल जाना चाहिये था..यहाँ सुनसान भी है.. आस पास हिंसक जानवर भी हो सकते हैं…. आप किसी मुसीबत में भी फंस सकते हैं।”… हक सा जताते हुए बोला था प्रतीक।
“जी.. आप बिल्कुल सही कह रहे हैं… मैं ध्यान रखूंगी आगे से…. आपका बहुत बहुत शुक्रिया।” कहकर कनिका वहाँ से फूलों की डलिया उठाकर निकल पड़ी।
प्रतीक भी अपने गाँव जाने के लिए स्टेशन से बाहर निकलना चाह रहा था… किन्तु उसकी नजरें बार बार प्लेटफार्म की ओर उठ पड़ती थीं….वह प्लेटफार्म पर कुछ ढूंढ रहा था….उसको महसूस हो रहा था कि उसकी कोई प्रिय वस्तु प्लेटफार्म पर छूट गई है… वह कुछ मिस कर रहा था…
शायद कनिका को।

नरेश चन्द्र उनियाल,
पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखण्ड।

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