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लघु कथा- जहां चाह वहां राह // रुकमणी शर्मा

 

ज़िंदगी का दूसरा नाम संघर्ष ही है।किसी की ज़िंदगी में ज्य़ादा और किसी की ज़िंदगी में कम। संकटों से संघर्ष करते हुए ज़िंदगी को ज़िंदादिली से जीना चाहिए। ऐसी ही एक कहानी सीमा के संघर्ष की है।

सीमा के पिताजी का देहांत तभी हो गया था जब सीमा मात्र तीन साल की थी। सीमा की माँ एक छोटी सी फैक्ट्री में काम कर के गुज़ारा चला रही थी। वक़्त मानो पंख लगा कर उड़ रहा था। देखते ही देखते सीमा दसवीं कक्षा में पहुंच गई थी और आज उसका रिजल्ट आने वाला था।एक अंजाना-सा भय उसके मन में समाया हुआ था। वह अकेले ही रिजल्ट देखने चली गई। रिजल्ट देखकर तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। उसने तो पूरे जिले में टॉप किया था।सबसे पहले ये ख़ुशी की ख़बर अपनी माँ को गले लगा कर सुनाना चाहती थी।वह माननीय अब्दुल कलाम साहब की तरह वैज्ञानिक बनने के सपनें बुनती हुई तेज़ कदमों से अपने घर की ओर चल पड़ी।

हे भगवान! ये क्या हुआ, वह सड़क पार कर ही रही थी कि एक ट्रक की चपेट में आ गई। उसकी दोनों टांगे बुरी तरह ज़ख्मी हो गई। जल्दी-जल्दी हॉस्पिटल ले जाया गया और उसकी माँ को भी सूचित किया गया। बेचारी माँ रोती बिलखती हॉस्पिटल पहुंची। डॉक्टर्स ने ऑपरेशन करने का त्वरित निर्णय लिया। दुर्भाग्य से ऑपरेशन सफल नहीं हो पाया।सीमा व्हीलचेयर पर आ गई।कुछ दिनों तक तो माँ -बेटी बहुत गहरे सदमें में रहीं पर सीमा की माँ ने परिस्थितियों से संघर्ष करने की ठान ली और बेटी को बार- बार समझा बुझा कर तैयार कर लिया। अब उनका संघर्ष शुरू हो गया। अपंगता के कारण ग्यारहवीं कक्षा में एडमिशन देने के लिए कोई तैयार नहीं था जबकि वह टॉपर थी।माँ ने तो अपनी बच्ची की दिली इच्छा पूरा करने की ठान ही ली थी। कमिश्नर की मदद से उसे एक अच्छे स्कूल में दाखिला मिल गया। बारहवीं में भी सीमा ने अपने स्कूल में टॉप किया। कॉलेज में प्रवेश तो कुछ प्रयास करके ही मिल गया परंतु यहां की चुनौतियां कुछ अलग थीं। यहां एक कक्षा से दूसरी कक्षा दूर- दूर थी तो कक्षाओं में ले जाने के लिए सीमा की माँ को साथ रहना पड़ता था। बेटी का सपना पूरा करने के लिए उसने फैक्ट्री में रात की शिफ्ट ले ली। वह दिन में बेटी साथ रहती थी और रात में ड्यूटी करती थी।

आखिर वह दिन भी आ गया जब सीमा के साइंटिस्ट बनने का सपना साकार हो गया वो भी टॉप कर के। उसे इसरो में वैज्ञानिक की नौकरी भी मिल गई।आज वो वहां नौकरी के लिए आयी थी जहां के वो सपनें देखा करती थी। दोनों माँ बेटी की आंखों में ख़ुशी के आंसू थे। दोनों गले मिल कर रो रहीं थीं और प्रभु का धन्यवाद कर रहीं थीं कि आख़िरकार उनका संघर्ष रंग लाया और उन्हें उनकी मंज़िल मिल गई।सीमा बार-बार माँ का धन्यवाद कर रही थी क्योंकि उनके साथ के बिना ये सम्भव नहीं था। उन्होंने उसका सपना पूरा करने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था। नमन मातृ शक्ति को।
ठीक ही तो है -जहां चाह वहां राह, अपंगता कोई बाधा नहीं, हौसले बुलंद है और संघर्ष जारी है तो दूर कुछ भी नहीं है।

रुकमणी शर्मा
गुरुग्राम

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