लघु कथा —पावन प्रेम गंगा घाट सा // मैत्रेयी त्रिपाठी

आप अकेले होकर भी अकेले नहीं हैं,
यही तो बनारस की ख़ूबसूरती है,और यह अस्सी घाट गुंजायमान होते हुये भी यहाँ अलौकिक शांति है…।
धवला मन ही मन सोचते हुये प्रमुदित हो रही थी कि हृदय में एक टीस सी उठी,माँ गंगा को निहारते हुये नेत्रों से अश्रुधारा बह निकली ।
हे माँ …बस इतना बता दो इतने अपशिष्ट प्रवाहित होने के पश्चात भी कैसे निर्मल हो माँ, मैं तो उस पापी के स्पर्शमात्र का स्मरण कर उद्विग्नावस्था में चली जाती हूँ…मैली हूँ मैं ..।
जो स्वयं धवला हो, वो मैली कैसे हो सकती है…भीष्म ने धवला के पास बैठते हुये कहा ।
आप! क्षमा चाहूँगी ध्यान ना रहा ।
प्रेम में पड़े इंसान को सुध कहाँ रहती है,भीष्म ने हँसते हुए कहा ।
जी मैंने आपको बताया था कि दुष्कर्म हुआ था मेरे साथ ,आप मेरी पीड़ा को और ना बढ़ाये , मुझे इसी अपराध बोध में जीना है अब ,मैं आपके योग्य नहीं ।
सुनो—माना की मैं बहुत आकर्षक व्यक्तित्व का धनी व्यक्ति हूँ और तुम काली, नाटी परंतु तुम हमेशा मेरी धवला हो…..अब देखो मत गंगा मैया का आदेश है, चलो कचहरी…
(हँसते हुये)चल भीष्म विवाह के बाणों की शैय्या तेरी प्रतीक्षा कर रही है ।
कितना निश्चल पावन प्रेम है तुम्हारा गंगा घाट सा जो मेरे द्रवित हृदय को प्रेम से अभिषिक्त कर रहा है, क्या मैं इतनी भाग्यशाली हूँ?
तभी एक साधू बाबा गुनगुनाते हैं.
प्रेम बरसाये बसंत ,बदरिया जैसे जल ।
माधव मिले राधिका,ठहर जाये यह पल ।
मैं अकेली कचहरी नहीं आऊँगी…भीष्म हँसती हुयी धवला को देखता रह जाता है ।।
मैत्रेयी त्रिपाठी