महाशिवरात्रि एवं महाकुंभ का आध्यात्मिक रहस्य — शुचिता नेगी की कलम से

परमपिता परमात्मा शिव शंकर भोलेनाथ ही परम सत्य है।
परमपिता निराकार ज्योति स्वरुप है और वह हम सब प्राणिमात्र के पिता है। हम भी मूल रूप मे ज्योति स्वरुप है जिसकी यादगार स्वरुप भृकुटी मध्य बिदी या टीका लगाते है। परमात्मा ( सभी साकार शरीर धारण करने वाली मनुष्य आत्माओ के बीच मे परम अर्थात ऊॅंच से ऊॅंच पार्ट धारी) आदिदेव, महादेव, शंकर हम सभी मनुष्य मात्र के पिता है। ऊॅंचे पर्वत पर परमपिता शिव की याद में लीन स्थित महादेव को तीसरा नेत्र दिखाते हैं ,जिसे शिव नेत्र कहा जाता है,वह वास्तव में ज्ञान का नेत्र है। यह ज्ञान का नेत्र उस समय खुलता है जब सारी सृष्टि घोर अज्ञान के अंधकार की रात्रि में डूबकर तामसी,भृष्टाचारी और दुख दायी बन जाती है। इस समय की यादगार ही महाशिवरात्रि है जब एक ओर सतज्ञान की धारणा करके सतधर्म की स्थापना होती है तो साथ ही साथ दूसरी ओर तामसी बन चुके सभी विधर्मों का विनाश भी होता है।सतज्ञान को धारण करके सतधर्म की स्थापना मे मूल बात है आत्मिक स्वरुप की स्मृति का अभ्यास और परम पिता परमात्मा की याद जिससे आत्मा पावन बनती है। आत्मा और परमपिता परमात्मा के इसी मिलन की यादगार मे कुम्भ का मिलन मेला मनाया जाता है।
— शुचिता नेगी “शुचि”