नारीवाद और उसकी चुनौतियां // राजेश कुमार ‘राज’ की कलम से

1. एक समय था जब विश्व में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति एक अर्ध गुलाम से ज्यादा कुछ नहीं थी। मर्दों की तुलना में उन्हें कमतर समझा जाता था। अगर कुछ मातृ सत्तात्मक समाजों को छोड़ दिया जाये तो महिलाओं को सम्पत्ति का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, मताधिकार इत्यादि अधिकार प्राप्त नहीं थे। घर से बाहर निकलकर आजीविका कमाने का अधिकार तो कल्पना से परे की बात थी। कुल मिलाकर उन्हें किसी भी तरह की स्वतंत्रता, समानता और अधिकार प्राप्त नहीं थे।
2. भारत में अगर आदिवासी समाज, जिसमें महिलाएं तुलनात्मक रूप से ज्यादा अधिकार सम्पन्न थीं, को अलग कर दें, तो स्त्रियों की दशा शोचनीय और विचारणीय थी। औरत को भोग्या, संतानोत्पत्ति का साधन और पुरूष की दासी मानकर उसके साथ हेय व्यवहार किया जाता था। एक स्त्री की निर्भरता पुरुष पर आजीवन निश्चित कर दी गई थी।
3. भारतीय परिपेक्ष में देखें तो स्त्री अधिकार की आवाज़ पराधीन भारत में अंग्रेजी राज के दौरान उठनी
शुरू हुई जब सन् 1828 में राजा राममोहन राय ने बंगाल में ब्रह्म समाज की स्थापना कर हिन्दू समाज की
स्त्री विरोधी कुरीतियों जैसे सती प्रथा का पुरज़ोर विरोध करना शुरू किया। उनके विरोध और जागरूकता
अभियान के फलस्वरूप भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक ने सन् 1829 में क़ानून
बना कर पूरे देश में सती प्रथा पर प्रतिबंध लगाया। उधर महाराष्ट्र में फुले दम्पत्ति सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध
जी जान से डटे हुए थे। कालांतर में महात्मा ज्योतिबा फुले, उनकी धर्मपत्नी सावित्रीबाई फुले और उनकी एक पारिवारिक मित्र तथा प्रथम मुस्लिम महिला अध्यापिका फातिमा शेख के संयुक्त प्रयासों से देश का पहला
महिला विद्यालय सन् 1848 में पुणे के भिड़ेवाड़ा में स्थापित हुआ। पूर्व में महिलाओं की औपचारिक शिक्षा
के लिये देश में कोई भी संस्थान नहीं था। यही वह ऐतिहासिक बिन्दु था जहां से हमारे देश में महिला
अधिकारों की सुगबुगाहट शुरू हुई।
4. विश्व में भारत पहला ऐसा देश बना जिसने
26 जनवरी सन् 1950 के रोज गणतंत्र बनते ही कानूनन महिलाओं सहित सभी देशवासियों को लिंग, जाति, धर्म, पंथ और सम्प्रदाय के भेदभाव के बिना समान अधिकार दिये। सन् 1952 में महिलाओं को भी पुरुषों के समकक्ष मताधिकार दे दिया गया। हिन्दू कोड बिल के जरिए महिलाओं को अधिकार सम्पन्न कर सदियों की पितृसत्तात्मक शोषणकारी सामाजिक व्यवस्था को एक दिन में बदल कर रख दिया गया। भारत के संदर्भ में यह तथ्य इसलिए अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है कि अमेरिका जैसे विकसित देश की अश्वेत महिलाओं को भी मताधिकार प्राप्त करने के लिये सन् 1964 तक और स्विट्जरलैंड की महिलाओं को सन् 1971 तक इंतजार करना पड़ा था। हालांकि आज भी भारत के सरकारी तंत्र में व्याप्त पुरुषवादी मानसिकता के कारण महिला सशक्तिकरण कानूनों के समुचित क्रियान्वयन की समस्या बनी हुई है जिसकी वजह से असंख्य महिलाएं या तो अपने अधिकारों से वंचित रह जाती हैं या प्रताड़ना झेलने को मजबूर हैं।
5. अब बात कर लेते हैं नारीवाद की चुनौतियों की। एक तरफ जहां देश में नारीवादी आंदोलन दिन-प्रतिदिन सशक्त बनता जा रहा है वहीं दूसरी ओर इस महिला सशक्तिकरण के कानूनों का कतिपय महिलाओं द्वारा दुरुपयोग किये जाने की वज़ह से पुरुष वर्ग में बेचैनी व्याप्त है। अभी हाल ही में ऐसे कई मामले सामने आये हैं जिनमें तथाकथित पीड़ित महिलाओं और उनके परिजनों ने दहेज विरोधी और महिला उत्पीड़न विरोधी कानूनों की आड़ में ससुराल पक्ष विशेषकर अपने पतियों को कथित तौर पर झूठे मुकदमों में फंसा कर इस हद तक प्रताड़ित किया कि उन बेचारों के सामने आत्महत्या करने के अतिरिक्त कोई और रास्ता बचा ही नहीं था। इस प्रकार की घटनाएं नारीवाद को कटघरे में खड़ा कर देती हैं और समाज, सरकार तथा न्याय व्यवस्था को इसे एक नये नजरिये देखने के लिये मजबूर करती हैं। यहां मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूॅं कि मैं किसी तरह से भी महिला सशक्तिकरण का विरोधी नहीं हूॅं। आज भी महिला उत्पीड़न के जो मामले प्रकाश में आते हैं उनमें से अधिकांश सच्चे और वास्तविक होते हैं। महिलाओं का एक नगण्य सा वर्ग है जो इन कानूनी प्रावधानों का दुरुपयोग करता है। अतः महिला सशक्तिकरण और महिला उत्पीड़न विरोधी कानूनों की प्रासंगिकता पर फिलहाल कोई प्रश्नचिन्ह नहीं है।
6. दूसरी चुनौती यह है कि कतिपय महिलाएं, अपनी अर्जित मानवीय और सामाजिक समानता को खींच कर अंतिम छोर तक ले गई हैं। इसमें शक की कोई भी गुंजाइश नहीं है कि आज की स्त्री हर वो काम बखूबी कर रही है जिन पर मर्दों ने अपना एकाधिकार मान रखा था। मसलन, सैन्य बलों और पुलिस बलों में भर्ती एवम् तैनाती।
7. आज की स्त्री दुर्गम क्षेत्रों में मर्दों के साथ मिलकर देश की सेवा कर रही है। लेकिन अपनी कुछ शारीरिक भिन्नताओं और लिंगाधारित आवश्यकताओं के कारण उन्हें अतिरिक्त दुश्वारियों का सामना तो करना ही पड़ता है। क्योंकि प्रकृति ने उन्हें एक अलग हेतु से अलग शरीर दिया है। शारीरिक संरचना के स्तर पर पुरुष से मुकाबला भी नारीवाद के लिये एक चुनौती है। वो इस से निपटने में सक्षम है, यह मेरा दृढ़ विश्वास है।
8. अगली चुनौती नारी आजादी के नाम पर कुछ महिलाओं द्वारा पुरुषोचित व्यवहार और पश्चिम का अंधानुकरण है। मिसाल के लिये कथित रूप से मद्यपान करना, जुआ खेलना, देर रात की पार्टियों में शामिल होना, वन नाइट स्टैंड (पार्टी आदि में मिले किसी अनजान मर्द के साथ एक रात की हमबिस्तरी), ड्रग्स का सेवन करना इत्यादि। यहां मेरा यह मंतव्य कदापि नहीं है कि मर्दों को यह सब करने का अधिकार है। उनके लिये भी यह सब वर्जनीय है लेकिन एक स्त्री परिवार की धुरी होती है। अपनी आने वाली पीढ़ियों को सुसंस्कारित करने की बड़ी जिम्मेदारी महिला के कंधों पर ही होती है। अतः उन्हें अपने व्यवहार को अनुकरणीय बना कर रखने की आवश्यकता है। महिलाओं से मेरी यही अपील है कि वें मर्दों की बराबरी करने के चक्कर में कुटैवों के कुचक्र में ना फंसे। नारी स्वतंत्रता की यह अवधारणा किसी रूप में भी कल्याणकारी नहीं है।
9. अपनी अस्मिता से समझौता किये बिना भी आज की नारी पुरुष को हर क्षेत्र में टक्कर देने में सक्षम है तथापि उसे नारीवाद की एक ऐसी परिभाषा गढ़नी पड़ेगी जो उसे वास्तविक समान अवसर और सम्मान के शिखर तक ले जा सकें। वह पुरुष को अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं बल्कि साथी समझे ताकि पुरुष भी उनके प्रति और अधिक सहृदय बन सकें।
10. मैं आशान्वित हूॅं कि हमारी महिलाएं पुरुषों के साथ दैहिक समानता के चक्कर को छोड़ सच्ची नारीवादी सोच को अपना कर अपने परिवारों, समाज और देश की उन्नति में अपना योगदान देंगी।