संतों के संग का संस्मरण // लेखक सूरज कांत

यह उन दिनों की बात है
जब दिल्ली में अधिकारिक तौर पर दुकानों व दफ़्तरों को सीलिंग की जा रही थी। सबसे शपत पत्र माँगा जो हमने नही दिया ।संतों ने हमें मना कर दिया था देने को । पूछने पर कि अगर वो आए तो क्या करें ।संतों ने कहा झाड़ू की सेवा जो हम अमृत समय गुरुद्वारा रकाब गंज के अंदर करते, बाहर दिवार के साथ साथ भी करने को कहा ।
साथ में गुरबाणी का एक शब्द *थिर घरि बैसों हरिजन प्यारे* दिया कि अगर वो आ गए तो बैठ कर मन ही मन गुरू का शब्द दोहराना। दो महीने के बाद कार्यवाही करने वाली टीम व साथ में पुलिस पीछे १०० तमाशबीन मेरे दफ़्तर आ गए । उन्होंने कार्यवाही शुरू कर दी और मैं गुरू का शब्द मन ही मन दोहराता रहा मेरी दफ़्तर के शटर गिरा कर सील करने वाले थे ।अचानक एक आफ़िसर ने सीलिंग रोक दी और सबको कहा कि चलो सीलिंग नही करनी । मेरे हाथ से बिना हस्ताक्षर व बिना नोटरी किया काग़ज़ मेरे हाथ से झपट के ले लिया और सबको कहा कि शपत पत्र मिल गया सीलिंग नही करनी और मैं हकका बकका रह गया, जब उनके जाने के बाद जब मैंने संतों को फोन किया तो मेरे बोलने से पहले ही वो बोले सूरज चले गए, सीलिंग करने वाले
सेवा सुमिरन के आगे नहीं कोई टिकने वाले
यह सुन अवाक रह गया और नतमस्तक हो गया ।
सूरज कांत